“दीप से दीप जले — राष्ट्र बने परिवार”
(संपादकीय)
बस्ती में सरस्वती विद्या मंदिर, रामबाग में आयोजित “दीपोत्सव से राष्ट्रोत्सव” कार्यक्रम केवल एक आयोजन नहीं, बल्कि भारत की आत्मा के पुनर्जागरण का प्रतीक बन गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष के पूर्वार्द्ध में जब पूरा देश दीपों से आलोकित है, तब यह संदेश और भी प्रासंगिक हो उठता है कि — “भारतीय समाज की इकाई व्यक्ति नहीं, कुटुंब है।”
क्षेत्र प्रचारक मा. अनिल जी का यह कथन केवल सामाजिक सत्य नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता का मूल सिद्धांत है। पश्चिमी चिंतन जहाँ व्यक्ति को स्वतंत्र इकाई मानता है, वहीं भारत का दृष्टिकोण सदा रहा है — ‘अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्’। अर्थात्, जो समूचे जगत को अपने परिवार की भाँति देखे, वही महान है। यही दृष्टि “वसुधैव कुटुम्बकम्” में साकार होती है।
आज जब समाज व्यक्तिवाद, उपभोक्तावाद और आत्मकेंद्रित जीवन के संकट से गुजर रहा है, तब संघ का यह संदेश — “बल्कि उस राष्ट्र का है जो एकता और संस्कार के सूत्र में बंधा हुआ है।कार्य में जोर लगाओ, शोर नहीं” — आत्मानुशासन और संयम का मार्ग दिखाता है। यह मार्ग केवल संगठन का नहीं, अपितु संस्कार और कोटूम्बिक साहचर्य का है.
कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री राम प्रसाद त्रिपाठी जी ने जब वैदिक मन्त्रों से अपने आशीर्वचन की शुरुआत की, तो वह दृश्य अपने आप में यह संदेश दे रहा था कि भारत में धर्म और राष्ट्र अलग नहीं, बल्कि पूरक तत्व हैं। दीप आरती में जब हजारों दीप एक साथ प्रज्वलित हुए, तब वह दृश्य केवल एक सांस्कृतिक अनुष्ठान नहीं था — वह एक संकल्प था कि हर घर में दीप तभी सच्चा है, जब वह राष्ट्र के आलोक से जुड़ा हो।
संघ की शताब्दी यात्रा केवल संगठन का विस्तार नहीं, बल्कि भारतीय जीवन मूल्यों की पुनर्स्थापना की यात्रा है। इसमें स्वयंसेवकों की निष्ठा, परिवारों की भागीदारी और समाज का समर्थन — तीनों मिलकर वह शक्ति बनाते हैं, जिसे “संघ, भारत और सनातन — तीनों एक ही तत्व के प्रतीक हैं” कहकर अभिव्यक्त किया गया।
आज जब दीपोत्सव का अर्थ केवल सजावट और उपभोग तक सीमित हो गया है, तब यह आयोजन बताता है कि दीप केवल घर नहीं, हृदय को भी प्रकाशित करता है।
और जब हर हृदय में राष्ट्र का दीप जले, तभी यह उत्सव दीपोत्सव से राष्ट्रोत्सव बनता है.

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