सम्पादकीय
‘हलाल प्रमाणन’ पर सियासत बनाम व्यवस्था का सच
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक बार फिर ‘हलाल प्रमाणन’ को लेकर देशव्यापी बहस छेड़ दी है। उन्होंने लोगों से आह्वान किया है कि वे ‘हलाल प्रमाणित’ उत्पादों का उपयोग न करें, क्योंकि उनके अनुसार इस प्रमाणन से प्राप्त धन आतंकवाद, धर्मान्तरण और लव जेहाद जैसी हिन्दू-विरोधी गतिविधियों में लगाया जाता है। यह कथन जितना सियासी प्रतीत होता है, उतना ही संवेदनशील भी है। बिहार में चुनावी माहौल है, और योगी भाजपा के प्रमुख प्रचारकों में हैं—इसलिए उनके बयान का राजनीतिक संदर्भ समझना भी आवश्यक है।
वास्तव में ‘हलाल प्रमाणन’ कोई अवैध प्रक्रिया नहीं है। भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय ने जिन चार संस्थाओं को यह अधिकार दिया है—‘जमीयत उलेमा-ए-हिन्द’, ‘जमीयत उलेमा-ए-महाराष्ट्र’, ‘हलाल इंडिया प्रा. लिमिटेड’ और ‘हलाल सर्टिफिकेशन सर्विसेज इंडिया प्रा. लिमिटेड’—वे सभी इस्लामी संस्थाएं हैं। इनके प्रमाणन के बिना भारत से इस्लामी देशों को कोई उत्पाद निर्यात नहीं किया जा सकता। इसलिए सरकार स्वयं इस प्रक्रिया का हिस्सा है, भले ही वह तटस्थ दिखाई देती हो।
‘हलाल’ शब्द इस्लाम में ‘वैध’ या ‘अनुमेय’ वस्तुओं के लिए प्रयुक्त होता है। प्रारंभ में यह केवल मांस उत्पादों तक सीमित था, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मांस इस्लामी रीति से वध किए गए पशु का है। लेकिन 1990 के दशक के बाद ‘हलाल’ प्रमाणन का दायरा बढ़ता गया और आज यह डेयरी उत्पादों, खाद्य पदार्थों, मसालों, तेल, पेय पदार्थों, सौन्दर्य प्रसाधनों, यहाँ तक कि माचिस, सीमेंट और अस्पतालों तक पहुँच चुका है। यह विस्तार कई बार हास्यास्पद प्रतीत होता है, क्योंकि इन उत्पादों में किसी भी ‘हराम’ या निषिद्ध सामग्री का सवाल ही नहीं उठता।
अनुमान है कि ‘हलाल’ प्रमाणन की यह अर्थव्यवस्था अब 8 लाख करोड़ रुपए से अधिक की हो चुकी है। कंपनियां केवल प्रमाणन प्राप्त करने में लगभग 66,000 करोड़ रुपए खर्च करती हैं। यह भी एक बड़ा प्रश्न है कि इस भारी-भरकम रकम का ऑडिट कौन करता है? क्या सरकार के पास इस पूरी प्रक्रिया की निगरानी का कोई तंत्र मौजूद है? और यदि है, तो प्रमाणन का अधिकार केवल कुछ धार्मिक संस्थाओं तक ही सीमित क्यों रखा गया है?
यह तर्क दिया जा सकता है कि इस्लामी देशों की व्यापारिक शर्तों के कारण भारत को ‘हलाल’ व्यवस्था बनाए रखनी पड़ती है, लेकिन क्या यह संभव नहीं कि सरकार स्वयं एक तटस्थ प्रमाणन एजेंसी बनाए, जिससे धार्मिक झुकाव का आरोप ही समाप्त हो जाए?
योगी आदित्यनाथ का यह कहना कि ‘हलाल प्रमाणन’ के पीछे धर्मान्तरण या जनसंख्या परिवर्तन की साजिश है, इसे ठोस सबूतों के अभाव में स्वीकार करना कठिन है। किंतु यह सत्य भी है कि इस प्रक्रिया ने एक समानांतर आर्थिक ढाँचा अवश्य खड़ा कर दिया है, जिस पर सरकारी नियंत्रण सीमित है। यही पहलू चिंताजनक है।
भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है। यहाँ किसी भी नीति या व्यवस्था को धार्मिक आधार पर नहीं, बल्कि आर्थिक और प्रशासनिक पारदर्शिता के आधार पर परखा जाना चाहिए। ‘हलाल प्रमाणन’ यदि व्यापारिक आवश्यकता है, तो उसका संचालन भी व्यापारिक और सरकारी संस्थानों के हाथ में होना चाहिए, न कि किसी धार्मिक संगठन के।
हर मुद्दे को हिन्दू-मुसलमान के चश्मे से देखना हमारे समाज की एक खतरनाक प्रवृत्ति बन चुकी है। यह देश सभी भारतीयों का है, और विकास का अधिकार भी सभी का है। ‘हलाल’ का प्रश्न भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए—सियासत के नहीं, नीति और पारदर्शिता के नजरिए से।
— सम्पादक मंडल
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