संसद में संविधान फाड़े, जूता फेके तो राजनीति — और सुप्रीम कोर्ट से प्रश्न पूछे तो अपराध?
भारतीय लोकतंत्र में विडंबना की यह पराकाष्ठा है कि जब संसद में संविधान फाड़ा जाता है, तब उसे लोकतांत्रिक असहमति कहा जाता है; जब संसद की गरिमा पर जूते फेंके जाते हैं, तब उसे राजनीतिक साहस का प्रतीक बताया जाता है; लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक मर्यादा की रक्षा करते हुए कोई प्रश्न उठाता है — तो उसे राजनीतिक हस्तक्षेप और सीमा-लांघन करार दिया जाता है। यह द्वैध न केवल लोकतंत्र के मूल मूल्य को घायल करता है, बल्कि “शक्ति संतुलन” की वह नींव भी हिला देता है जिस पर यह गणराज्य टिका है।
राजनीति का ‘विशेषाधिकार’ बनाम न्याय का ‘अतिक्रमण’
आज की राजनीति ने अपने लिए एक नया शास्त्र रच लिया है — ‘असहमति का ठेका’। संसद में यदि कोई दल या नेता संविधान की प्रतियां फाड़ता है, तो यह कहा जाता है कि वह “जनभावना की अभिव्यक्ति” कर रहा है। लेकिन न्यायपालिका, जब उसी संविधान की रक्षा के लिए सवाल करती है, तो वही राजनीति उसे “अहंकारी”, “गैर-निर्वाचित” और “जनादेश से परे” कहती है।
यह प्रवृत्ति केवल सत्ता या विपक्ष की नहीं, बल्कि पूरे राजनीतिक वर्ग की है — जहाँ संविधान अब आदर्श नहीं, औजार बन चुका है। राजनीति अब सिद्धांत से नहीं, अवसर से संचालित होती है; और न्यायपालिका, जब इस अवसरवाद पर प्रश्न करती है, तब उसे लोकतंत्र-विरोधी बताना सबसे आसान हथियार बन जाता है।
संसद बनाम न्यायपालिका — यह टकराव नहीं, संतुलन है
लोकतंत्र के तीन स्तंभ — विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका — प्रतिस्पर्धी नहीं, परस्पर नियंत्रणकारी संस्थाएँ हैं। संविधान निर्माताओं ने कभी नहीं चाहा था कि संसद सर्वशक्तिमान बने। पर आज के राजनीतिक विमर्श में एक खतरनाक प्रवृत्ति उभर रही है — “संसद सर्वोपरि” का नारा देकर न्यायिक समीक्षा को कमजोर करने की। याद रखिए — यदि संसद सर्वोपरि होती, तो 1975 का आपातकाल भी संवैधानिक कहलाता! परंतु न्यायपालिका ने ही उस अंधकार में दीपक जलाया था। सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा था कि “संविधान का मूल ढाँचा संसद की दया पर नहीं है।” आज वही न्यायपालिका, यदि संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए कार्य कर रही है, तो उसे “लोकतंत्र की सीमाओं का अतिक्रमण” कह देना, दरअसल राजनीति का अपराधबोध छिपाने का तरीका है।
संविधान के प्रति निष्ठा — शपथ या सुविधा?
जब नेता संसद में प्रवेश करते हैं, तो संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं।
पर जब वही संविधान उनकी सत्ता की राह में दीवार बनता है, तो वे उसे कागज़ की बेड़ी मान लेते हैं। वास्तव में, संविधान की मर्यादा पर प्रश्न उठाने का अधिकार केवल न्यायपालिका को है — क्योंकि वही संविधान की अभिभावक संस्था है। राजनीति, संविधान की व्याख्या अपने लाभ के अनुसार करती है; न्यायपालिका, उसके सिद्धांतों की रक्षा के लिए। पर आज का राजनीतिक विमर्श इतना आत्ममुग्ध है कि उसे हर प्रश्न अपराध लगता है, हर रोक-टोक असहयोग। सत्ता अब “जनादेश” के नाम पर “अविनय” का पर्याय बन चुकी है।
लोकतंत्र में प्रश्न पूछना अपराध नहीं — धर्म है
सवाल यह नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने क्या पूछा; सवाल यह है कि राजनीति को डर किस बात का है? क्या इसलिए कि कोई संस्था अब भी ऐसी है जो जनादेश के आगे नतमस्तक नहीं होती? लोकतंत्र में प्रश्न पूछना अपराध नहीं, धर्म है। जो लोकतंत्र प्रश्न से डरता है, वह तानाशाही की ओर अग्रसर होता है।
यदि संसद में प्रश्न पूछने का अधिकार लोकतंत्र की पहचान है, तो न्यायपालिका में प्रश्न उठाने का अधिकार उसका प्राणवायु।
राजनीतिक अपराधबोध का आवरण
सत्ता की सबसे बड़ी विडंबना यही है — जब तक न्यायपालिका मौन रहती है, वह “स्वतंत्र” कहलाती है;जैसे ही वह किसी निर्णय या नीति पर प्रश्न उठाती है,वह “सक्रिय”, “हस्तक्षेपकारी” और “पक्षपाती” बन जाती है।यह वही मानसिकता है जो पत्रकारों को “देशद्रोही”, छात्रों को “अशांत तत्व” और विचारकों को “राष्ट्रविरोधी” कहती है। राजनीति का यह ‘अपराधबोध’ इतना गहरा है कि वह हर आलोचना को अपराध में बदल देती है।
संसद की गरिमा बनाम न्याय की गरिमा
संसद में जूते फेंके जाते हैं, कुर्सियाँ टूटती हैं, माइक उखाड़े जाते हैं, और विपक्ष व सत्ता के बीच गाली-गलौज सामान्य दृश्य बन चुका है। फिर भी यह सब “लोकतांत्रिक उग्रता” कहलाता है। परंतु जब न्यायालय किसी मामले में “अतिरेक” या “संवैधानिक विचलन” पर टिप्पणी करता है, तो कहा जाता है कि वह “सीमा पार कर रहा है”! क्या यह वही भारत है जहाँ संविधान को ‘पवित्र ग्रंथ’ कहा गया था? क्या हम अब उस बिंदु पर पहुँच चुके हैं जहाँ “संसद की मर्यादा” केवल राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन रह गई है?
जनता का अधिकार बनाम नेताओं की सुविधा
संविधान जनता को अधिकार देता है; लेकिन नेता उसे अपने विशेषाधिकार के रूप में भुनाते हैं। सुप्रीम कोर्ट, जब जनता के अधिकार की रक्षा के लिए खड़ा होता है, तो वही नेता “लोकतंत्र की गरिमा” का हवाला देते हैं। सच्चाई यह है कि लोकतंत्र की गरिमा संसद की दीवारों में नहीं, बल्कि न्याय की निष्ठा में बसती है। यदि संसद संविधान फाड़ सकती है, तो न्यायालय उसे जोड़ने का अधिकार रखता है। यदि राजनीति जूते फेंककर लोकतंत्र की हत्या कर सकती है, तो न्यायपालिका प्रश्न पूछकर उसे पुनर्जीवित करने की क्षमता रखती है।
भारत की परंपरा में प्रश्न पवित्र है
यह भूमि कभी अंधभक्ति की नहीं, प्रश्न की भूमि रही है —नचिकेता ने मृत्यु से प्रश्न किया, याज्ञवल्क्य ने जनक से, अर्जुन ने कृष्ण से।यहाँ संवाद ही धर्म है। और आज यदि सुप्रीम कोर्ट प्रश्न पूछता है, तो वह इसी भारतीय परंपरा का विस्तार है। जो राजनीति इस प्रश्न से घबराती है, वह भारतीय नहीं, केवल सत्तालोभी मानसिकता की उत्तराधिकारी है।
भविष्य का सवाल — लोकतंत्र किसके हाथों में?
भारत 2047 की ओर बढ़ रहा है — पर प्रश्न यह है कि क्या यह यात्रा संविधान की छत्रछाया में होगी या सत्ता की छाया में? यदि राजनीति यह मान ले कि केवल “बहुमत” ही सत्य है, तो यह लोकतंत्र नहीं, संख्यात्मक तानाशाही होगी। न्यायपालिका का प्रश्न दरअसल संविधान की आत्मा की अंतिम सांस है — जो सत्ता के शोर में भी फुसफुसाती है:“स्मरण रखो, संविधान जनता का है, दल का नहीं।” संसद यदि संविधान फाड़े तो वह केवल एक काग़ज़ नहीं फटता — एक राष्ट्र का विवेक फटता है। और यदि न्यायालय प्रश्न उठाए तो वह केवल कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा का प्रतिकार है। इसलिए, प्रश्न उठाना अपराध नहीं, चेतना है। क्योंकि जब सत्ता पवित्र ग्रंथ फाड़े और न्याय मौन रहे — तो वह राष्ट्र आत्महत्या की ओर बढ़ता है.

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