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शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

पूरे प्रदेश कस्तूरबा विद्यालय की छात्राएँ,, अपने गरीबी को कोस रही, प्रशासन नहीं दूर कर पा रहा उनका भय


ज़ब लखनऊ की ये हालत, प्रदेश कैसे सुरक्षित



 बेटियाँ जिलाधिकारी के दरवाज़े पर — और व्यवस्था सो रही है!

लखनऊ की हवा में यह खबर तैरते ही प्रशासन की नींद उड़ जानी चाहिए थी—
कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय की छात्राएँ जिलाधिकारी के पास पहुँचीं, और कहा —“रात में हॉस्टल में कई आदमी आते हैं, हम डरती हैं, और प्रिंसिपल हमें धमकाती हैं!” सोचिए — यह राजधानी है, मुख्यमंत्री का घर सिर्फ 10 किलोमीटर दूर है और यहाँ नाबालिग बेटियाँ रात के अंधेरे में भय और अस्मिता के बीच जीने को मजबूर हैं कहने को ‘संपूर्ण समाधान दिवस’ था, पर बच्चियों को पहुँचना पड़ा असंपूर्ण व्यवस्था के द्वार तक।

 “कस्तूरबा” के नाम पर यह कलंक ये वही विद्यालय हैं जो “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” योजना के प्रतीक बने। कस्तूरबा गांधी — जिन्होंने स्त्री शिक्षा की मशाल उठाई उनके नाम पर बने विद्यालय आज शोषण, भय और भ्रष्टाचार के अड्डे बन रहे हैं। कितनी विडंबना है —जिस संस्था का नाम ‘कस्तूरबा’ है, वहाँ ‘कस्तूरबा’ की बेटियाँ ही अपमानित हो रही हैं।  छह गाड़ियों का प्रवेश, और पुलिस अंधी! छात्राओं ने बताया — “रात में पाँच-छह गाड़ियाँ आती हैं, पुरुष हॉस्टल में घुसते हैं, जो देख लेती हैं, उन्हें प्रिंसिपल पीटती हैं, गालियाँ देती हैं।”

अब प्रश्न उठता है —क्या यह स्कूल किसी घने जंगल में है? क्या लखनऊ प्रशासन, पुलिस, जिला अधिकारी, बाल संरक्षण विभाग सब सो रहे थे? राजधानी के भीतर इतनी बड़ी हलचल और किसी को भनक तक नहीं? यह न केवल प्रशासनिक विफलता है, बल्कि संवेदनहीनता की पराकाष्ठा भी है।
जहाँ स्कूलों में ‘सुरक्षा गार्ड’ की ड्यूटी है, वहाँ ‘पुरुष मेहमानों’ का आगमन कैसे संभव है?

 “बेटी बचाओ” अब नारा नहीं, व्यंग्य बन गया है सरकारी विज्ञापनों में मुस्कुराती बालिकाएँ हैं, मंचों पर भाषणों में “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” की गूँज है —
पर जमीन पर? बेटियाँ “बचाओ” चिल्ला रही हैं और प्रशासन “जाँच करा रहे हैं” कहकर शांत है।
जिलाधिकारी विशाख जी. अय्यर ने जांच के आदेश दे दिए —पर क्या जाँच अब बेटी की टूटी हिम्मत लौटा पाएगी? क्या रिपोर्ट से वह रातें मिटेंगी जिनमें इन बच्चियों ने भय का सामना किया?

व्यवस्था की आत्मा सड़ चुकी है यह घटना एक स्कूल की नहीं — पूरी शिक्षा व्यवस्था की नैतिक मृत्यु का संकेत है। जब प्रिंसिपल और वार्डन ही अपराध में सहभागी बन जाएँ, जब प्रशासन केवल रिपोर्ट तैयार करे, जब मंत्रालय केवल ट्वीट करे तो समझ लीजिए — व्यवस्था “जीवित” नहीं, “यांत्रिक” हो चुकी है।

 अब केवल जांच नहीं, जवाब चाहिए! बाल संरक्षण आयोग को इस पूरे प्रकरण की न्यायिक जांच करनी चाहिए। स्कूल की प्रिंसिपल, वार्डन और शामिल सभी पुरुषों पर POCSO अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज हो।

और सबसे ज़रूरी —सभी कस्तूरबा गांधी विद्यालयों का स्वतंत्र ऑडिट और निरीक्षण हो।क्योंकि यह लखनऊ में हुआ है, कल बलिया, बस्ती, बांदा में भी हो सकता है।

 समाज भी दोषी है हम सब, जो इस घटना को एक “न्यूज़” की तरह पढ़कर आगे बढ़ जाते हैं —क्या हम निर्दोष हैं?नहीं। क्योंकि हमने “नैतिकता” को प्रशासन के हवाले कर दिया है। हमारे समाज ने “संवेदना” को “सरकारी योजना” बना दिया है।

कभी महर्षि जनक ने कहा था — “राजा वही जो जन के भीतर के भय को हर ले।”

आज के राजा, चाहे लोकतंत्र के हों या प्रशासन के, क्या वे जनक की इस परिभाषा पर खरे उतर रहे हैं?



अंत में —राजधानी की रोशनी में बेटियों का डर यदि अब भी अदृश्य है,
तो यह केवल शिक्षा विभाग की हार नहीं,यह राज्य की आत्मा की पराजय है।
“कस्तूरबा” के नाम पर शर्म करो —क्योंकि जब तक बेटी की आँखों का भय मिटेगा नहीं,तब तक “विकास” और “संस्कार” दोनों झूठे शब्द रहेंगे।



 

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