जब शब्द ही राक्षस बन जाएँ
इमरान मसूद, राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा और कांग्रेस की वैचारिक गिरावट का खतरनाक सच
फिर आता है इमरान मसूद का बयान:इसी पृष्ठभूमि में—एक भारतीय सांसदएक संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति,एक प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी से जुड़ा नेताखड़े होकर कहता है—“हमास आतंकवादी संगठन नहीं है।”यह बयान केवल विदेश नीति पर मत नहीं है।यह मानवता के विरुद्ध किए गए अपराधों के नैतिक निषेध से इनकार है।नेल्सन मंडेला बनाम हमास: यह तुलना ही अपराध है
नेल्सन मंडेला—नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध लड़े,निर्दोष नागरिकों की हत्या को कभी सही नहीं ठहराया,हिंसा को अंतिम विकल्प माना, लक्ष्य नहींहमास पर लगाए गए आरोप—नागरिकों को जानबूझकर निशाना बनाना,बच्चों और महिलाओं की हत्या,डर और आतंक को रणनीति बनाना,इन दोनों को एक तराजू में रखना,इतिहास, नैतिकता और मानवता— तीनों का अपमान है।राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा की मौन सहमति?यह प्रश्न स्वाभाविक है—क्या इमरान मसूद यह सब बिना कांग्रेस नेतृत्व की वैचारिक छत्रछाया के कह रहे हैं?क्योंकि यही इमरान मसूद—प्रधानमंत्री मोदी के लिए अत्यंत आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग कर चुके हैं,जिन बयानों पर कभी कांग्रेस ने स्पष्ट सार्वजनिक फटकार नहीं लगाई,राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा—एक ओर “नफरत के खिलाफ राजनीति” की बात करते हैं,दूसरी ओर ऐसे बयानों पर चयनात्मक चुप्पी साध लेते हैं,यह चुप्पी सहमति जैसी ही खतरनाक होती है।यही कांग्रेस RSS और बजरंग दल को आतंकवादी कहती है,यहीं से कांग्रेस की विचारधारा का दोहरेपन वाला चेहरा पूरी तरह उजागर होता है।राष्ट्रसेवा, आपदा राहत, सामाजिक कार्यों में लगे संगठनों को “आतंकी” कहने में संकोच नहीं,लेकिन विदेशी धरती पर नागरिकों की हत्या के आरोपी संगठन पर मानवाधिकार का मुलम्मा,यह किस तरह की वैचारिक ईमानदारी है?तुष्टिकरण से अंधी हुई राजनीति,कांग्रेस की समस्या यह नहीं कि वह सरकार की आलोचना करती है।समस्या यह है कि—वह विरोध में विवेक खो बैठती है,उसे लगता है कि हर बयान को किसी न किसी वोट-गणित में ढालना है.और जब राजनीति मानवता से ऊपर रखी जाती है,तो परिणाम ऐसे ही बयान होते हैं—हाँ आतंकवादी “आज़ादी के सेनानी” बताए जाते हैं।भारत की वैश्विक छवि पर प्रहार,जब भारतीय सांसद इस तरह के बयान देते हैं—भारत की आतंकवाद-विरोधी नीति कमजोर दिखाई जाती है,अंतरराष्ट्रीय मंचों पर देश की नैतिक स्थिति को नुकसान पहुँचता है,और भारत के सैनिकों व नागरिकों के बलिदान का अपमान होता है
क्या राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा इस ज़िम्मेदारी से मुक्त हैं?यह बहस नहीं, चेतावनी है-यह लेख किसी व्यक्ति विशेष से घृणा का आह्वान नहीं है।यह राजनीतिक चेतावनी है।जब आतंक और मानवाधिकार के बीच की रेखा मिटाई जाती है,तब लोकतंत्र नहीं बचता— केवल अराजकता बचती है। इतिहास सब याद रखता है इतिहास—बयानों को याद रखता है,चुप्पियों को भी दर्ज करता हैऔर यह भी नोट करता है कि कठिन समय में कौन मानवता के साथ खड़ा थाआज सवाल यह नहीं है कि-इमरान मसूद ने क्या कहा।आज सवाल यह है कि—राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा,इस पर क्या कहते हैं— या फिर क्यों नहीं कहते?शब्द केवल अभिव्यक्ति नहीं होते—वे दिशा देते हैं।और जब शब्द आतंक को सही ठहराने लगें,तो उन्हें चुनौती देनाराष्ट्रधर्म बन जाता है।इतिहास मौन को कभी माफ़ नहीं करता।
राहुल गांधी और उनके परिवार खुद राजश्री प्रवृत्ति और वृत्ति का है इसलिए उसके अगल-बगल वही लोग रहेंगे जो रावण कुंभकरण और कंस की परंपरा में जियेंगे.

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