कप्तानगंज मदरसा दारुल उलूम अहले सुन्नत फैजनवी विवाद : प्रशासनिक सत्य, राजनीतिक संलिप्तता और जांच की अनिवार्यता
उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले के कप्तानगंज क्षेत्र में चल रहे मदरसा विवाद ने न केवल स्थानीय प्रशासन की कार्यशैली पर प्रश्नचिह्न लगाया है, बल्कि यह प्रदेश में धार्मिक संस्थानों की पारदर्शिता पर भी गहरी बहस छेड़ता है। यह मामला एक साधारण विवाद नहीं, बल्कि संस्थागत कब्ज़ा, पारिवारिक नियुक्तियों और प्रशासनिक सांठगांठ का जटिल ताना-बाना है। मामले की जड़ें उस समय से जुड़ी हैं जब कप्तानगंज के एक मदरसे में एक अध्यापक को पद से हटाकर उसके स्थान पर संबंधित मौलाना के दामादों की नियुक्ति की जाने लगी। अब तक पाँच दामादों की नियुक्ति पूरी हो चुकी है और छठे की तैयारी चल रही है। यह प्रवृत्ति शिक्षा के क्षेत्र में धर्म और पारिवारिक लाभ के अपवित्र गठजोड़ का उदाहरण बन गई है। मदरसे के नाम पर जिस संस्था को धार्मिक और शैक्षिक उत्थान का केंद्र होना चाहिए था, वहाँ परिवारवाद और आर्थिक हितों का जाल बुना जा रहा है।
प्रशासन की भूमिका और निक्षेप की विडंबना,सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि जब यह मामला उत्तर प्रदेश सरकार के उच्च स्तर तक पहुँचा, तो बस्ती जिला प्रशासन ने इसे ‘निक्षेपित’ करने का निर्णय लिया — अर्थात जांच को स्थगित या शांत कर देने जैसा कदम। यह निर्णय न केवल शासन को गुमराह करने वाला था, बल्कि स्थानीय स्तर पर प्रशासनिक निष्पक्षता पर भी गंभीर प्रश्न उठाता है। कप्तानगंज का यह प्रसंग दिखाता है कि किस तरह स्थानीय दबाव, राजनीतिक संपर्क और धार्मिक प्रभाव के बीच प्रशासन अपने मूल कर्तव्य — निष्पक्ष जांच — से भटक जाता है। जो अधिकारी और तंत्र जनता के हित में कार्य करने के लिए नियुक्त हैं, वे यदि पक्षपातपूर्ण रुख अपनाएँ, तो न्याय और व्यवस्था दोनों की जड़ें हिल जाती हैं।
सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा और बंजारा निर्माण,मामले का एक और पहलू सरकारी भूमि पर मदरसे के विस्तार और बंजारों के निर्माण का है। यह कृत्य भूमि राजस्व कानून और वक्फ अधिनियम दोनों के उल्लंघन की ओर संकेत करता है। ऐसे में प्रशासन की मौन स्वीकृति या निष्क्रियता भ्रष्टाचार का अप्रत्यक्ष समर्थन बन जाती है।
यदि किसी धर्मस्थल या मदरसे के नाम पर सार्वजनिक ज़मीन पर अवैध निर्माण होता है, तो यह केवल राजस्व हानि नहीं बल्कि कानूनी और धार्मिक दुरुपयोग का गंभीर उदाहरण है। यह स्थिति प्रदेश में चल रहे “राज्य बनाम संस्था” संतुलन को अस्थिर करती है।
खलीलाबाद मदरसे पर stf की कार्यवाही
यह कोई पहला मामला नहीं है। खलीलाबाद के गोश्तमंडी में मौलाना समसूल हुदा के विरुद्ध एटीएस की जांच और त्वरित कार्यवाही यह साबित करती है कि जब शासन चाहे तो धर्म के नाम पर चल रहे आर्थिक खेल का पर्दाफाश संभव है। एटीएस ने उन मामलों में वित्तीय स्रोत, नियुक्ति की प्रक्रिया और विदेशी फंडिंग तक की पड़ताल की थी। इसीलिए कप्तानगंज प्रकरण में भी एटीएस जांच की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। यह केवल धार्मिक मामला नहीं है, बल्कि राज्य सुरक्षा, शासनिक ईमानदारी और सामाजिक सौहार्द का प्रश्न है।
धोखा किसे — शासन को या समाज को? मामले का सबसे नाजुक पक्ष यह है कि संबंधित मौलाना और मदरसा प्रशासन पर राज्य को गलत सूचना देने, शासन को गुमराह करने और अपने प्रभाव में प्रशासनिक रिपोर्ट तैयार करवाने के आरोप हैं। यदि यह सत्य सिद्ध होता है तो यह न केवल सरकारी नियमों का उल्लंघन है बल्कि राज्य के विश्वास के साथ किया गया छल है। शासन के किसी भी स्तर पर झूठी रिपोर्ट या फर्जी सूचना देना दंडनीय अपराध है। यह कृत्य धार्मिक आवरण में छिपकर शासन के तंत्र को ठगने के समान है, और यदि सरकार इस पर कठोर कार्रवाई नहीं करती तो यह एक ख़तरनाक परंपरा बन जाएगी — जहाँ धार्मिक प्रभाव, सरकारी धन और पारिवारिक स्वार्थ मिलकर शिक्षा को व्यवसाय बना देंगे।
अल्पसंख्यक कल्याण विभाग एसडीएम हरिया और जिला प्रशासन की भूमिका कप्तानगंज प्रकरण में संदिग्ध है
धार्मिक शिक्षा का विकृतिकरण धर्म की शिक्षा का उद्देश्य हमेशा आत्मिक उन्नयन, नैतिकता और समाज सुधार रहा है। पर जब शिक्षा संस्थान “रिश्तेदारी और पद” के केंद्र बन जाएँ, तो वह शिक्षा नहीं, संस्थागत पाखंड कहलाती है। कप्तानगंज का यह प्रकरण इस प्रश्न को फिर उठाता है — क्या धार्मिक शिक्षा संस्थान राज्य से अनुदान लेकर भी स्वयं को जवाबदेही से मुक्त समझ सकते हैं? यदि किसी संस्था को सरकारी सहायता प्राप्त होती है, तो उसे सरकारी नैतिकता और पारदर्शिता के मानकों का पालन करना अनिवार्य है। अन्यथा यह शासन और धर्म दोनों के साथ विश्वासघात है
भविष्य की दिशा — जांच और सुधार कप्तानगंज का यह मामला केवल एक व्यक्ति या मदरसे तक सीमित नहीं है। यह उस प्रणाली की ओर इशारा करता है जो धर्म के नाम पर आर्थिक हित, नियुक्ति में पारिवारिक लाभ और प्रशासन में राजनीतिक दबाव को सामान्य बना चुकी है। यदि इस प्रकरण में एटीएस या शासन की उच्च स्तरीय जांच होती है, तो यह केवल एक दोषी को दंडित करने की बात नहीं होगी — यह एक संदेश होगा कि कानून और धर्म के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता। यही जांच प्रदेश के अन्य जिलों के लिए भी आदर्श बनेगी कि शासन को गुमराह करने और सार्वजनिक संपत्ति पर कब्ज़ा करने की कोई भी कोशिश अंततः उजागर होकर रहेगी।
कप्तानगंज प्रकरण उत्तर प्रदेश शासन और प्रशासन के लिए एक परीक्षा है।यदि यह मामला फिर से किसी “निक्षेप” या फ़ाइलों के बोझ तले दफना दिया गया, तो यह न केवल प्रशासनिक नाकामी होगी बल्कि शासन की नैतिक हार भी।पर यदि जांच निष्पक्ष, निर्भीक और सत्यपरक हुई — तो यह संदेश दूर तक जाएगा कि राज्य के धर्मदंड के आगे कोई भी पाखंड टिक नहीं सकता। यह समय है जब शासन “राजदंड” के साथ-साथ “धर्मदंड” भी सक्रिय करे —जहाँ न्याय केवल कानूनी न रहे, बल्कि नैतिक भी हो। कप्तानगंज जैसे मामलों में यही “नैतिक न्याय” उत्तर प्रदेश की प्रशासनिक आत्मा को पुनर्जीवित कर सकता है। बताते हैं कि हर जिले में खलीलाबाद और कप्तानगंज जैसे मदरसे अपने षड्यंत्र के बल पर फल फूल रहे हैं और प्रशासनिक लापरवाही का राष्ट्र हित में इससे कोई बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता.
धार्मिक शिक्षा का विकृतिकरण धर्म की शिक्षा का उद्देश्य हमेशा आत्मिक उन्नयन, नैतिकता और समाज सुधार रहा है। पर जब शिक्षा संस्थान “रिश्तेदारी और पद” के केंद्र बन जाएँ, तो वह शिक्षा नहीं, संस्थागत पाखंड कहलाती है। कप्तानगंज का यह प्रकरण इस प्रश्न को फिर उठाता है — क्या धार्मिक शिक्षा संस्थान राज्य से अनुदान लेकर भी स्वयं को जवाबदेही से मुक्त समझ सकते हैं? यदि किसी संस्था को सरकारी सहायता प्राप्त होती है, तो उसे सरकारी नैतिकता और पारदर्शिता के मानकों का पालन करना अनिवार्य है। अन्यथा यह शासन और धर्म दोनों के साथ विश्वासघात है
भविष्य की दिशा — जांच और सुधार कप्तानगंज का यह मामला केवल एक व्यक्ति या मदरसे तक सीमित नहीं है। यह उस प्रणाली की ओर इशारा करता है जो धर्म के नाम पर आर्थिक हित, नियुक्ति में पारिवारिक लाभ और प्रशासन में राजनीतिक दबाव को सामान्य बना चुकी है। यदि इस प्रकरण में एटीएस या शासन की उच्च स्तरीय जांच होती है, तो यह केवल एक दोषी को दंडित करने की बात नहीं होगी — यह एक संदेश होगा कि कानून और धर्म के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता। यही जांच प्रदेश के अन्य जिलों के लिए भी आदर्श बनेगी कि शासन को गुमराह करने और सार्वजनिक संपत्ति पर कब्ज़ा करने की कोई भी कोशिश अंततः उजागर होकर रहेगी।
कप्तानगंज प्रकरण उत्तर प्रदेश शासन और प्रशासन के लिए एक परीक्षा है।यदि यह मामला फिर से किसी “निक्षेप” या फ़ाइलों के बोझ तले दफना दिया गया, तो यह न केवल प्रशासनिक नाकामी होगी बल्कि शासन की नैतिक हार भी।पर यदि जांच निष्पक्ष, निर्भीक और सत्यपरक हुई — तो यह संदेश दूर तक जाएगा कि राज्य के धर्मदंड के आगे कोई भी पाखंड टिक नहीं सकता। यह समय है जब शासन “राजदंड” के साथ-साथ “धर्मदंड” भी सक्रिय करे —जहाँ न्याय केवल कानूनी न रहे, बल्कि नैतिक भी हो। कप्तानगंज जैसे मामलों में यही “नैतिक न्याय” उत्तर प्रदेश की प्रशासनिक आत्मा को पुनर्जीवित कर सकता है। बताते हैं कि हर जिले में खलीलाबाद और कप्तानगंज जैसे मदरसे अपने षड्यंत्र के बल पर फल फूल रहे हैं और प्रशासनिक लापरवाही का राष्ट्र हित में इससे कोई बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता.

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