श्रीराम मंदिर पर ध्वजारोहण
“भारत का वैचारिक संग्राम: स्मृति, स्वाभिमान और सभ्यता का पुनर्जागरण”
बस्ती, अयोध्या से
भारत एक बार फिर अपने इतिहास के निर्णायक द्वार पर खड़ा है। सभ्यता का संघर्ष अब तलवारों से नहीं, विचारों से लड़ा जा रहा है। आज़ादी के बाद का भारत राजनीतिक रूप से स्वतंत्र अवश्य हुआ, पर वैचारिक रूप से उसे परतंत्र रहने की आदत डाल दी गई—जहाँ आत्म-गौरव को संकीर्णता कहा गया, और सांस्कृतिक चेतना को पिछड़ापन। परंतु बीते एक दशक ने इस भ्रमजाल को निर्णायक रूप से तोड़ दिया है। भारत अब आत्म-अपमान की भाषा नहीं, आत्म-विश्वास की वाणी में बोल रहा है।
बाबर की मानसिकता बनाम भारतीय चेतना, देश में आज भी कुछ समूह इतिहास के विदेशी आक्रांताओं के नाम पर चलने वाली राजनीति को "धर्म-रक्षा" का नाम देते हैं। यह विडंबना है कि मस्जिदें “अल्लाह की इबादतगाह” होते हुए भी बाबर के नाम पर विवादों में घसीटी जाती हैं। अल्लाह किसी बाबर की जागीर नहीं, और मुसलमान भारत के संविधान के नागरिक हैं—किसी मध्य एशियाई आक्रमणकारी के नहीं। जो लोग आज भी बाबर की ढाल लेकर खड़े हैं, वे दरअसल आस्था की नहीं, “इतिहास-विरोधी राजनीति” की सेवा कर रहे हैं। यह मानसिकता आम मुस्लिम युवाओं को मुख्यधारा से दूर कर, कट्टरता और आतंकवाद के दलदल में धकेलती है। इसीलिए आवश्यक है कि मस्जिदों से स्पष्ट आवाज़ उठे—
“जो भारत-विरोधी है, वह इस्लाम-विरोधी है।”500 वर्षों का घाव और अस्थायी मरहम,रामजन्मभूमि का संघर्ष कोई अचानक उपजा विवाद नहीं था; यह भारतीय मन पर पाँच शताब्दियों का स्थायी घाव था। संतों का त्याग, जनमानस की पीड़ा और पुरातत्वीय सत्य—सबने मिलकर इस घाव को भारत की सामूहिक वेदना बना दिया। आज जब रामलला विराजमान हैं और मंदिर का पुनरुद्धार सम्पन्न हो रहा है, तो यह केवल धार्मिक विजय नहीं—यह भारतीय आत्मा की पुनर्स्थापना है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस प्रक्रिया के इतिहास पुरुष इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने भारत की टूटे हुए आत्मविश्वास को एकजुट कर, उसे शिखर तक पहुँचाने का साहस दिखाया। यह मरहम स्थायी तब होगा जब भारत अपने सांस्कृतिक सत्य को नीतिगत शक्ति में बदले।
आतंकवाद—आस्था नहीं, वैश्विक अपराध, आतंकवाद किसी मज़हब का नहीं, मानवता का विरोधी है। परंतु दुर्भाग्य यह कि इसे सबसे अधिक वैचारिक रसद वहीं से मिलती है जहाँ कट्टरता के नाम पर मासूम युवाओं को भड़काया जाता है।
भारत की समस्या यह नहीं कि कुछ लोग भटके हुए हैं; समस्या यह है कि कुछ शक्तियाँ जानबूझकर उन्हें भटका रही हैं—सोशल मीडिया से लेकर फंडिंग नेटवर्क तक।आज आवश्यकता है—शिक्षित मुस्लिम युवाओं को कट्टरता से दूर रखने की
मस्जिदों से स्पष्ट राष्ट्रवादी संदेश देने की सिविल सोसाइटी, पुलिस और प्रशासन के संयुक्त अभियान की और सबसे बढ़कर संवैधानिक राष्ट्रवाद को मुख्यधारा की चेतना बनाने की.
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद—भारत की असली धुरी, भारतीय राष्ट्रवाद यूरोप के आक्रामक राष्ट्रवाद जैसा नहीं। भारत का राष्ट्रवाद—समावेशी है धर्मनिरपेक्ष नहीं, धर्म-बहुल सांस्कृतिक दृष्टि पर आधारित है और किसी समुदाय को शत्रु नहीं मानता, पर राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वोपरि रखता है भारतीय राष्ट्रवाद वह शक्ति है जिसने राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरुनानक, कबीर, तिलक, गांधी, सुभाष, पटेल, अंबेडकर सभी को एक सूत्र में जोड़ा है।
यह राष्ट्रवाद कहता है—“भारत कोई राजनीतिक इकाई नहीं—एक सभ्यता है।”
नया भारत—नया वैचारिक नेतृत्व,आज भारत विश्व मंच पर निर्णायक स्वर में बोल रहा है—आर्थिक शक्ति के रूप में,रक्षा-नवाचार के रूप में
सांस्कृतिक पुनर्जागरण के रूप में और वैश्विक आतंकवाद विरोधी नेतृत्व के रूप में,मोदी इस यात्रा के शिखर पुरुष हैं—क्योंकि उन्होंने जनता को केवल विकास नहीं दिया, बल्कि भारत का आत्म-स्वाभिमान लौटाया। वे आधुनिक जनक की तरह हैं—जो चेतना जगाते हैं, जो राष्ट्र को आत्मसंवाद की ओर ले जाते हैं, और जो भारत को 2047 के संकल्प-पथ पर दृढ़ करते हैं।
भारत का भविष्य किसी विदेशी विचारधारा के हवाले नहीं किया जा सकता।
यह देश—राम की मर्यादा,विवेकानंद की गर्जना,और भगत सिंह के साहस
से बनेगा।यह वैचारिक संघर्ष केवल राजनीति का नहीं—राष्ट्र-निर्माण का प्रश्न है।
भारत अब जाग चुका है;और जागा हुआ भारत न इतिहास भूलेगा, न आतंकवाद को क्षमा करेगा, और न अपनी सभ्यता से पीछे हटेगा।
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