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गुरुवार, 13 नवंबर 2025

ब्राह्मण का ही वेश क्यों? — एक सांस्कृतिक, दार्शनिक और सामाजिक पुनर्विचार

ब्राह्मण का ही  वेश क्यों? — एक

सांस्कृतिक, दार्शनिक और सामाजिक पुनर्विचार,

नितेश शर्मा

भारत के शाश्वत इतिहास में “ब्राह्मण” शब्द केवल एक जाति नहीं, बल्कि ज्ञान, तप, और विश्वास का प्रतीक रहा है। यह प्रश्न कि “हर युग में जब भी किसी को छल या नीति की कोई विशेष भूमिका निभानी पड़ी, तो उसने ब्राह्मण का वेश ही क्यों धारण किया?” — अपने भीतर अत्यंत गूढ़ सांस्कृतिक संकेत रखता है।
रामायण से महाभारत, पुराणों से उपनिषदों तक — यह तथ्य बार-बार उभरता है कि जब भी किसी को विश्वास अर्जित करनासत्य के निकट पहुँचना, या नीति का आडंबर रचना होता था, तो वह ब्राह्मण-वेश अपनाता था।यह केवल ऐतिहासिक या पौराणिक विवरण नहीं, बल्कि भारतीय सामाजिक मनोविज्ञान का गहरा सन्देश है।क्योंकि “ब्राह्मण” शब्द उस युग में सत्य, ज्ञान और निष्पक्षता का पर्याय था।और किसी समाज का सबसे बड़ा सम्मान यह होता है कि उसका सबसे पवित्र प्रतीक ही सबसे विश्वसनीय मुखौटा बन सके।🔶

. पौराणिक प्रतीकों में ब्राह्मण-वेश का अर्थ,रामायण में रावण जब सीता का हरण करने आता है, तो वह ब्राह्मण का वेश धारण करता है।क्यों? क्योंकि उस युग में ब्राह्मण का रूप ऐसा था जिसे देखकर कोई भी गृहस्थ संदेह नहीं करता था।वह रूप श्रद्धा का प्रतीक था।सीता ने उसे भिक्षुक समझकर अन्न-जल अर्पित किया — क्योंकि समाज में यह संस्कार था कि ब्राह्मण भूखा न जाए, उसे ठुकराना अधर्म है।हनुमानजी भी लंका में प्रवेश कर जानकारी लेने के लिए ब्राह्मण-वेश में आते हैं — ताकि उनका उद्देश्य गुप्त रहे।कर्ण, जो क्षत्रिय था, उसने भी परशुराम से धनुर्वेद का ज्ञान पाने के लिए ब्राह्मण का वेश बनाया।विष्णु जब राजा बलि से त्रिभुवन दान लेना चाहते हैं, तो वामन-ब्राह्मण के रूप में आते हैं।यह सब प्रसंग किसी जातीय श्रेष्ठता के नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक विश्वास के हैं।ब्राह्मण-वेश उस समय “सत्य और श्रद्धा का वस्त्र” था।जो भी उसे धारण करता, उसे समाज स्वतः विश्वसनीय मान लेता।और यही कारण था कि जब किसी को छल करना होता, तो वह उसी विश्वास की आड़ लेता।

  ब्राह्मण — वर्ण नहीं, अवस्था,शास्त्रों में कहा गया है —“ब्राह्मणो नाम ब्रह्मनिष्ठः।”अर्थात जो ब्रह्म — यानी परम सत्य — में स्थित है, वही ब्राह्मण है।इस दृष्टि से ब्राह्मण जन्म से नहीं, गुण, कर्म और स्वभाव से निर्धारित होता है।वह व्यक्ति जोसत्य में अडिग हो,ज्ञान का उपासक हो,और समाज के कल्याण के लिए कार्यरत हो —वही सच्चा ब्राह्मण है।ब्राह्मण का धर्म केवल पूजा या पाठ नहीं, बल्कि समाज को दिशा देना,अंधकार में दीपक बनना और लोकमंगल की चेतना जगाना है।वह सत्ता का दास नहीं, सत्य का साधक होता है।जब रावण जैसे लोग इस पवित्र वेश का दुरुपयोग करते हैं, तो यह संकेत है कि जहाँ श्रद्धा सबसे अधिक होती है, वहाँ उसका शोषण भी संभव होता है।जैसे आज “सेवा”, “धर्म” या “राजनीति” के नाम पर अनेक लोग मुखौटे पहन लेते हैं —उसी तरह उस समय ब्राह्मण-वेश समाज में सबसे विश्वसनीय मुखौटा था।

 ब्राह्मण-वेश की सांस्कृतिक मनोविज्ञान,किसी समाज की पहचान उसके विश्वास के प्रतीक से होती है।प्राचीन भारत में ब्राह्मण का अर्थ था —“जो आत्मसंयम, करुणा और विद्या से जगत को पोषित करे।”उसके पास भूमि नहीं थी, पर ज्ञान था।उसके पास सेना नहीं थी, पर शब्दों की शक्ति थी।उसके पास संपत्ति नहीं थी, पर संतोष और शांति की पूँजी थी।इसलिए समाज के हृदय में ब्राह्मण के प्रति अटूट आस्था थी।वह आस्था इतनी गहरी थी कि यदि कोई व्यक्ति ब्राह्मण-वेश में आता, तो उसे दैवी मान लिया जाता।यही कारण है कि छल करने वाले भी उसी विश्वास का उपयोग करते थे।यह घटना केवल धार्मिक नहीं, सामाजिक मनोविज्ञान का प्रतिबिंब है।मनुष्य वहाँ सबसे अधिक ठगा जाता है जहाँ वह सबसे अधिक भरोसा करता है।

ज़ब प्रतीक बनगया रावण,ब्राह्मणत्व कोई जातिगत पहचान नहीं, बल्कि मानवता का उत्कर्ष है।वह विचार है कि ज्ञान, संयम और सत्य के माध्यम से ही जीवन की दिशा सुधर सकती है।इसलिए जब शास्त्र “ब्राह्मण” कहते हैं, तो वे “उच्च कुल” की बात नहीं करते, बल्कि उच्च चरित्र की करते हैं।ऋग्वेद में कहा गया है —“ब्राह्मणः मुखम्।”अर्थात समाज का मुख, जो बोलता नहीं, बल्कि दिशा देता है।ब्राह्मण की वाणी से समाज की नीति बनती थी,उसके आचरण से समाज की मर्यादा बनती थी।इस दृष्टि से देखें तो ब्राह्मण-वेश का प्रयोग किसी वंश की महिमा नहीं,बल्कि विवेक और विश्वसनीयता के प्रतीक का उपयोग था।जैसे आज “डॉक्टर” शब्द सुनते ही मन में सेवा और विश्वास का भाव आता है —वैसे ही उस समय “ब्राह्मण” शब्द सुनते ही मन में पवित्रता का भाव उठता था।

  आधुनिक अर्थ — ब्राह्मणत्व आज कहाँ है?,समय बदला।अब “ब्राह्मण” शब्द जातीय राजनीति, सामाजिक आरोपों और ऐतिहासिक द्वेषों में उलझा दिया गया।परंतु इसका मूल अर्थ खोना भारत की आध्यात्मिक परंपरा का ह्रास है।क्योंकि “ब्राह्मणत्व” का अर्थ है —विचार में व्यापकता,जीवन में संयम,और कर्म में परहितभाव।आज जब समाज में अविश्वास, स्वार्थ और विभाजन बढ़ रहा है, तब ब्राह्मणत्व की पुनः आवश्यकता है।यह आवश्यकता किसी उपनाम या कुलनाम की नहीं,बल्कि उस भावना की है जो कहती है —“सत्य ही धर्म है, और धर्म ही लोककल्याण का मार्ग।”हर व्यक्ति जो ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाता है,जो बिना लोभ और हिंसा के समाज के लिए जीता है,वह अपने कर्म से “ब्राह्मण” है।यही गीता का भाव है —“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।”(भगवान ने वर्ण व्यवस्था गुण और कर्म से रची, जन्म से नहीं।)

 .दुरुपयोग और आत्मचिंतन,इतिहास यह भी बताता है कि जब किसी उच्च प्रतीक का दुरुपयोग होता है,तो समाज में भ्रम और विघटन आता है।रावण, कालनेमी या विश्वामित्र जैसे उदाहरण बताते हैं किसत्य के मुखौटे के नीचे असत्य भी छिप सकता है।आज भी जब हम देखते हैं कि कोई धर्म के नाम पर हिंसा करे,या कोई राजनीति के नाम पर झूठ बोले,तो वही घटना दोहराई जाती है —“वेश ब्राह्मण का, पर मन असुर का।”अतः यह प्रश्न “ब्राह्मण ही क्यों?”सिर्फ अतीत का नहीं, बल्कि आज का भी आत्मपरीक्षण है।क्या हम उस विश्वास के योग्य हैं जो हमारे पूर्वजों ने ब्राह्मणत्व को दिया था?क्या हमारी वाणी, आचरण और दृष्टि उतनी ही पवित्र है जितनी “ब्राह्मण” शब्द का अर्थ?

  वर्तमान युग में ब्राह्मण की आवश्यकता?आज का युग भौतिक समृद्धि का है, लेकिन मानसिक दरिद्रता का भी।ज्ञान तो बहुत है, पर विवेक कम।सूचना बहुत है, पर संयम नहीं।ऐसे में ब्राह्मणत्व की भावना —अध्ययन, त्याग, संतुलन और करुणा —समाज को पुनः दिशा दे सकती है।भारत का भविष्य केवल तकनीकी ज्ञान से नहीं,बल्कि नैतिक ज्ञान से सुरक्षित होगा।और यही वह स्थान है जहाँ “ब्राह्मणत्व” प्रासंगिक हो जाता है।ब्राह्मण वह नहीं जो केवल ग्रंथ जानता है,बल्कि वह जो जीवन को ग्रंथ बनाकर जीता है।वह अपने भीतर का दीपक जलाकर दूसरों का मार्ग प्रकाशित करता है।वह न किसी को छोटा मानता है, न स्वयं को बड़ा —बल्कि सबमें परमात्मा देखता है।

ब्राह्मणत्व की पुनरस्थापना,इसलिए जब हम कहते हैं — “ब्राह्मण ही क्यों?”तो उत्तर है —क्योंकि ब्राह्मण का नाम विश्वास है,उसका स्वरूप सत्य है,और उसका उद्देश्य लोककल्याण है।जब रावण जैसे असुर उस वेश का उपयोग छल के लिए करते हैं,तो यह उनकी नीति नहीं, ब्राह्मणत्व की महिमा है।क्योंकि कोई झूठ कभी सत्य का वेश न धारण करता,यदि सत्य स्वयं इतना पवित्र और प्रभावी न होता।आज आवश्यकता है कि समाज “ब्राह्मण” शब्द कोजाति की सीमाओं से मुक्त करचरित्र, विवेक और करुणा की पहचान बनाए।हर शिक्षक, हर वैज्ञानिक, हर ईमानदार नागरिक,जो समाज की भलाई के लिए कार्यरत है —वह ब्राह्मणत्व का आधुनिक प्रतिनिधि है।

 

ब्राह्मणत्व का अर्थ है —ज्ञान में विनम्रता, शक्ति में संयम, और सेवा में आनंद।
यदि यह भावना हर भारतीय के जीवन में पुनः जागे,तो न कोई छल के लिए ब्राह्मण-वेश धारण करेगा,न किसी को छल से डरना पड़ेगा।
क्योंकि तब हर मनुष्य स्वयं ब्राह्मणत्व का धारणकर्ता होगा —जो सत्य, शांति और समाज के कल्याण के लिए जिएगा।ब्राह्मण जाति नहीं — चेतना है।वह भारत की आत्मा का दीपक है —जो हर युग में, हर रूप में,अंधकार को आलोक में बदलता है.

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