भारत की आत्मा का शाश्ववत स्वर वन्देमातरम - कौटिल्य का भारत

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गुरुवार, 13 नवंबर 2025

भारत की आत्मा का शाश्ववत स्वर वन्देमातरम

 षष्टम श्रृंखला

राजेंद्र नाथ तिवारी


वन्दे मातरम्
: भारत की आत्मा का शाश्वत स्वरभारत का स्वाधीनता संग्राम केवल राजनीतिक घटनाओं की श्रृंखला नहीं था; वह भारतीय आत्मा के पुनर्जागरण का युग था। इस संग्राम की जड़ में एक गीत था — “वन्दे मातरम्।” यह गीत एक नारा नहीं, बल्कि एक ऐसी शक्ति थी जिसने परतंत्र भारत के जन-जन को उस माँ की चेतना से जोड़ा, जो मूक किंतु अमर थी — मातृभूमि। बंगाल के भूभाग से उठी यह ज्वाला शीघ्र ही समूचे भारत में फैल गई। बंग-भंग आंदोलन इसी ज्वाला का आरंभिक बिंदु था।बंगाल विभाजन : ब्रिटिश सत्ता की विभाजनकारी नीति1905 — ब्रिटिश साम्राज्य के इतिहास का वह अध्याय जब लॉर्ड कर्ज़न ने बंगाल को दो हिस्सों में बाँटने का निर्णय लिया। अंग्रेज यह दावा कर रहे थे कि बंगाल शासन के लिए बहुत बड़ा हो गया है, इसलिए प्रशासनिक सुविधा हेतु उसका विभाजन आवश्यक है। लेकिन वास्तव में यह निर्णय “फूट डालो और राज करो” की घृणित नीति का हिस्सा था। उन्होंने पूर्वी बंगाल को मुस्लिम बहुल प्रांत घोषित किया, और पश्चिमी भाग को हिंदू-प्रधान क्षेत्र में रखा। इस चाल का उद्देश्य था — धार्मिक आधार पर समाज को दो हिस्सों में बाँटना, ताकि भारत की राष्ट्रीय चेतना कभी एक न हो सके।जनता की प्रतिक्रिया : आक्रोश से एकता तकपर अंग्रेजों की यह गणना गलत साबित हुई। बंगाल की जनता ने विभाजन को स्वीकार करने के बजाय उसे अपने आत्मसम्मान पर प्रहार समझा। हर गली, हर विद्यालय, हर सभा में एक ही स्वर गूंजा — “वन्दे मातरम्।” यह नारा अब चेतना बन चुका था। शिक्षित युवाओं से लेकर ग्राम्य महिलाओं तक, सभी इस गीत को अपनी प्रार्थना की तरह गाते थे। मंदिरों में भजन के साथ, विद्यालयों में प्रार्थना के रूप में, और जुलूसों में उद्घोष के रूप में “वन्दे मातरम्” गूंजता रहा। यह गीत बाँग्ला मातृभूमि की वेदना और भारत माता की महिमा का एक साथ प्रतीक बन गया।टैगोर और ‘आमार सोनार बांग्ला’ की रचनाइसी उथल-पुथल के कालखंड में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने “आमार सोनार बांग्ला” की रचना की — यह गीत उस समय एक ऐसे मरहम की तरह था, जिसने विभाजन के घावों पर सांत्वना दी। टैगोर का यह भाव केवल बंगाल तक सीमित नहीं था; उसमें भारत के प्रत्येक कोने में व्याप्त मातृभूमि की स्तुति थी। वह मानववादी और राष्ट्रीय एकता का गीत था। यद्यपि आगे चलकर यह बांग्लादेश का राष्ट्रगान बना, उसकी आत्मा भारतमयी ही रही — माँ की वंदना, भूमि की पूजा और एकता की प्रार्थना।वन्दे मातरम् की ध्वनि से जागरणअरविंद घोष ने इस आंदोलन को नई दिशा दी। वे केवल क्रांतिकारी नहीं, बल्कि दार्शनिक और योगी भी थे। उन्होंने कहा — “वन्दे मातरम् केवल शब्द नहीं, यह शक्ति है, यह वह ज्वाला है जो भारत के सुप्त प्राणों को जगा देगी।”

उनकी यह घोषणा उस दौर में बिजली की तरह गूंजी। उन्होंने “वन्दे मातरम्” नाम से एक पत्रिका प्रारंभ की, जो ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध जनजागरण का सबसे तीव्र साधन बनी। उनके लेख समाज में यह विचार भर रहे थे कि स्वतंत्रता कोई विदेशी उपहार नहीं, बल्कि आत्मबल से प्राप्त किया जाने वाला अधिकार है।उदय हुए राष्ट्रवादी नेताबंग-भंग आंदोलन ने संपूर्ण भारत में नए नेतृत्व को जन्म दिया। यह वही काल था जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के शब्द “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” गूंजे। बिपिनचंद्र पाल ने आंदोलन को वाणी दी, अरविंद घोष ने उसे दिशा दी, और लाला लाजपत राय ने पंजाब में राष्ट्रवाद की ज्योति जलायी। दक्षिण भारत में चिदंबरम पिल्लै ने इसे समुद्र तट तक पहुँचा दिया। इस तरह “वन्दे मातरम्” पूरे भारत को जोड़ने वाली धुरी बन गया।ब्रिटिश दमन और भारतीय दृढ़ताअंग्रेज इस जनजागरण से भयभीत हो उठे। “वन्दे मातरम्” बोलना अपराध घोषित कर दिया गया। स्कूलों में इस गीत को गाने पर छात्रों को निष्कासित किया गया, अध्यापकों की नौकरी छीन ली गई। रैलियों पर लाठीचार्ज और गिरफ्तारियाँ आम हो गईं। लेकिन जितना दमन बढ़ा, उतना ही गीत की गूंज तेज होती गई।

लाठी की चोटों के बीच भी युवक मुस्कुराकर कहते, “वन्दे मातरम्।”

युवतियाँ खादी के झंडे लेकर जुलूस में निकलतीं — “वन्दे मातरम्।”

मस्जिदों से मंदिरों तक, गाँवों से विश्वविद्यालयों तक, यह नारा पवित्र मन्त्र की तरह फैल गया।1905 से 1911 : जनशक्ति की विजयआठ वर्षों के सतत संघर्ष ने आखिरकार ब्रिटिश सत्ता को झुका दिया। 1911 में बंगाल विभाजन रद्द करने की घोषणा हुई। यह किसी प्रशासनिक पुनर्गठन का अंत नहीं, बल्कि भारतीय जनबल की जीत थी। ब्रिटिश शासन ने दिल्ली को राजधानी घोषित कर यह संकेत दिया कि कलकत्ता अब क्रांति का केंद्र बन चुका है। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बंगाल की आँच अब पंजाब, महाराष्ट्र, मद्रास और उत्तर प्रदेश तक पहुँच चुकी थी। भारत के हर कोने में वही स्वप्न था — स्वतंत्र भारत का।वन्दे मातरम् : संग्राम का प्राण1905 के बाद “वन्दे मातरम्” भारत का रक्त बन गया। होमरूल आंदोलन के दौरान एनी बेसेंट ने इसे अपनाया, कांग्रेस के अधिवेशनों में यह आरंभिक गीत बना। जलियांवाला बाग, असहयोग, नमक सत्याग्रह — हर संघर्ष में यह उद्घोष सैनिकों की हिम्मत बढ़ाता रहा।

महात्मा गांधी ने कहा था — “वन्दे मातरम् वह मंत्र है जिसने गुलाम हिंदुस्तान में आज़ादी की ललक जगाई।”

नेहरू, सुभाष, पटेल — सभी ने इसे आदरपूर्वक स्थान दिया। सुभाषचंद्र बोस की “आज़ाद हिंद फौज” में यह नारा सैनिकों की आत्मा बन गया। हर आत्मोत्सर्ग, हर बलिदान की पृष्ठभूमि में यह गीत था।1947 : स्वतंत्र भारत और राष्ट्रगीत की गरिमास्वाधीनता के पश्चात जब संविधान सभा में यह प्रश्न उठा कि राष्ट्रगान कौन होगा, तब दो गीत भारत के हृदय में थे — “जन गण मन” और “वन्दे मातरम्।”

रवीन्द्रनाथ टैगोर का “जन गण मन” राष्ट्रगान बना, पर नेहरू ने स्वयं यह स्पष्ट किया कि “वन्दे मातरम् हमारे स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा रहा है, इसे राष्ट्रगीत का दर्जा देना हमारा नैतिक कर्तव्य है।”

इस निर्णय ने एक संदेश दिया — भारतभूमि की वंदना और मानवता की एकता, दोनों को समान आदर प्राप्त है।आज भी जब यह गीत गूंजता है, सभा या मैदान में कोई भारतीय सिर झुकाकर नहीं, वरन् ऊँचा उठाकर इसे गाता है। यह गर्व, भक्ति और कृतज्ञता का सामूहिक भाव है।दार्शनिक दृष्टि : भूमि का दैवी स्वरूपभारतीय संस्कृति में धरती मात्र पदार्थ नहीं, चेतना है। ऋग्वेद से लेकर उपनिषदों तक “भूमि-माता” का स्मरण मिलता है। “वन्दे मातरम्” उसी विचार का रूपांतरण है — जहाँ भूमि, नदी, आकाश, वायु और पर्वत सब जीवन दायिनी माता के अंग बन जाते हैं।

बंकिमचंद्र ने जब यह गीत लिखा, तब उसमें केवल राष्ट्रवाद नहीं था, बल्कि संस्कृति का मूर्त भाव था। “सुजलां सुफलाम्, मलयजशीतलाम्” — यह सौंदर्य और आध्यात्मिकता का संगम है।

यह हमें याद दिलाता है कि देश केवल सीमाओं और राजनीतिक संरचनाओं से नहीं बनता — वह बनता है श्रद्धा, समर्पण और संस्कार से।बंगाल से सम्पूर्ण भारत : चेतना का प्रसारबंगाल की यह चेतना शीघ्र ही सब दिशाओं में फैल गई। महाराष्ट्र में लाला लाजपत राय, पुणे और बंबई में तिलक, उत्तर भारत में गाँधी और मालवीय — सबने इसे एक स्वर बनाया।

जब पंजाब में जलियांवाला बाग की त्रासदी घटी, तब भी भीड़ की आत्मा से “वन्दे मातरम्” फूटा था।

जब साबरमती में सत्याग्रहियों का दल निकला, उनके गीतों में यह मंत्र जगमगा रहा था।

यह गीत भारत की हर बोली में, हर हृदय में स्थान पा गया था — चाहे वह तमिल हो या पंजाबी, असमिया या गुजराती।समकालीन परिप्रेक्ष्य : बंग-भंग की चेतावनीआज जब भारत पुनः विविधता और बहुलता की कसौटी पर खड़ा है, तब बंग-भंग आंदोलन का सन्देश अत्यंत प्रासंगिक प्रतीत होता है।

वह आंदोलन कहता है — “धर्म, भाषा, जाति या क्षेत्र के नाम पर विभाजन किसी का भी हित नहीं करता।”

1905 में जनता ने जो एकता दिखाई, वही भारत की आत्मा है। वही शक्ति है जो हमें बार-बार प्रतिकूल परिस्थितियों में अडिग रखती है।

आज के संदर्भ में “वन्दे मातरम्” केवल गीत नहीं, एक चेतावनी भी है — कि जब तक हम अपने भीतर की एकता को जीवित रखेंगे, कोई भी शक्ति हमें तोड़ नहीं सकेगी।सांस्कृतिक दृष्टि से वन्दे मातरम्संस्कृति के स्तर पर “वन्दे मातरम्” भारतीय कला और संगीत का भी अमर प्रतीक है। इस गीत ने साहित्य, चित्रकला, नाटक, और देशभक्ति संगीत को नई दिशा दी।

भारतेंदु, द्विजेन्द्र लाल राय, और महाकवि मैथिलीशरण गुप्त जैसे साहित्यकारों ने इससे प्रेरणा पाई।

भारतीय सिनेमा में अनेक बार इसी भावना को प्रकट किया गया — जहाँ “वन्दे मातरम्” सुनते ही पात्रों के भीतर नयी चेतना जन्म लेती है।

यह गीत केवल शब्द नहीं, भावों का समग्र ब्रह्मांड है।वन्दे मातरम् : आधुनिक भारत में अर्थआजादी के 78 वर्षों बाद भी यह गीत उतना ही जीवंत है। आज जब भारत तकनीकी, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से विश्व मंच पर अग्रणी बन रहा है, तब यह गीत हमें हमारी जड़ों की याद दिलाता है।

यह हमें स्मरण कराता है कि प्रगति और आधुनिकता तभी सार्थक हैं, जब उनमें संस्कृति और आत्म-सम्मान का भाव जुड़ा हो।

भारत का अर्थ केवल आर्थिक सामर्थ्य नहीं, बल्कि आत्मा की स्वतंत्रता है — और “वन्दे मातरम्” उसी आत्मा का उद्घोष है।शिक्षा और युवाशक्ति में इसकी भूमिकायुवाओं के लिए यह गीत एक प्रेरणास्रोत है। यह उन्हें याद दिलाता है कि राष्ट्र निर्माण केवल नेताओं का कार्य नहीं, यह हर नागरिक का कर्तव्य है।

विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में यह गीत यदि नियमित रूप से गाया जाए, तो छात्रों के भीतर मातृभूमि के प्रति समर्पण की भावना स्वतः जन्मेगी।

“वन्दे मातरम्” हमें यह भी सिखाता है कि सच्चा देशप्रेम अंधभक्ति नहीं, बल्कि सेवा और जिम्मेदारी है।आध्यात्मिक राष्ट्रवाद : वन्दे मातरम् की आत्माअरविंद घोष ने एक स्थान पर कहा था — “हमारा राष्ट्रवाद संकीर्ण नहीं, वह मानवता की ओर बढ़ता हुआ धर्म है।”

वन्दे मातरम् का भी यही अर्थ है। जब हम इस गीत को गाते हैं, तो केवल भूमि का नहीं, समस्त जीवन का सम्मान करते हैं। यह सार्वभौमिकता भारतीय राष्ट्रवाद का अनूठा गुण है, जो किसी अन्य देश में दुर्लभ है।

भारत का राष्ट्रवाद किसी के विरोध में नहीं, बल्कि समग्रता के पक्ष में है। यही “वन्दे मातरम्” की आत्मा है।निष्कर्ष : अमर पुकार का स्वरवन्दे मातरम् की गूंज ने एक परतंत्र युग को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया।

बंग-भंग आंदोलन से लेकर आज तक इस गीत ने भारत की आत्मा को अखंड रखा है। यह हमें सिखाता है

राष्ट्र केवल सीमाओं से नहीं, भावना से बनता है।

माँ का सम्मान, भूमि की रक्षा और आत्मनिर्भरता ही सच्ची देशभक्ति है।

और जब तक भारतवासी इस पुकार को हृदय से गाते रहेंगे, तब तक भारत अमर रहेगा — क्योंकि यही गीत उसकी आत्मा की धड़कन है।

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