भारतीय राजनीतिक संस्कृति में ‘गुरु-शिष्य’ का संबंध मात्र व्यक्तिगत निष्ठा का मामला नहीं, बल्कि संस्कृति, मूल्य, अनुशासन, मर्यादा और राष्ट्रनिर्माण की धुरी रहा है। जिस देश ने ऋषि परंपरा से सभ्यता का निर्माण किया, जिसमें शिष्य ने अपने गुरु को अग्नि समान पूज्य माना, आज उसी देश की राजनीति में एक शब्द तेजी से फैल रहा है—भस्मासुर। यह वही मानसिकता है जिसमें व्यक्ति गुरु से सब कुछ पाता है, पर राजनीतिक सत्ता मिलते ही उसी गुरु को निगल जाने की कोशिश करता है।
यह संपादकीय इसी भ्रांति-वृत्ति, छल, कृतघ्नता और चरित्र-स्खलन पर आधारित है।
भस्मासुर—वह दैत्य जो वरदान लेकर विनाश करता था
पुराणों में ‘भस्मासुर’ उस असुर को कहा गया जिसने भाषा, वाद, शास्त्र और तर्क का वरदान तो पा लिया, पर उसी वरदान का उपयोग उसने अपने ही देवता, गुरु और संरक्षकों पर प्रहार करने के लिए किया। इसलिए वह अंततः स्वयं विनष्ट हुआ।
आज राजनीति में वही प्रवृत्ति पुनर्जीवित होती दिखती है—जहाँ नेता गुरु की कृपा से उठते हैं पर शासन-सत्ता मिलते ही गुरु को धोखा देना अपना अधिकार समझते हैं।इस कृतघ्नता की भाषा आज चुनावी सभाओं, राजनीतिक गठबंधनों और विधानसभाओं में खुलकर सुनाई देती है।
राजनीति में चरित्र का पतन—गुरु को ‘सीढ़ी’ समझने की वृत्ति,भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा द्वंद्व यही है कि नेतृत्व त्यागी होना चाहिए, पर आज सत्ता की आकांक्षा इतनी उग्र हो चुकी है कि गुरु-शिष्य परंपरा को अवसरवाद की मशीन बना दिया गया है। यह वही बीमारी है जिसमें—गुरु सिर्फ मंच पर सम्मान के लिए,शिष्य सिर्फ अवसर मिलने तक,
और राजनीति सिर्फ सत्ता तक सीमित हो जाती है।
जिस क्षण सत्ता की गंध नाक तक पहुँचती है, वही शिष्य गुरु के विरुद्ध षड्यंत्र रचते, फूट डालते, और मीडिया के माइक्रोफोन में बैठकर इतिहास के अपने ही निर्माता की खिल्ली उड़ाते हैं,यह भस्मासुर का आधुनिक संस्करण है—गुरु से पाए, गुरु को खाए।
व्यंजना: भारतीय राजनीति का छुपा हुआ शस्त्र
भारतीय भाषा-परंपरा में व्यंजना अत्यंत महत्वपूर्ण है। व्यंजना वह है जिसमें बिना बोले कहा जाता है और बिना कहे समझ लिया जाता है। आज भारतीय राजनीति में भाषा का उपयोग सीधा नहीं, बल्कि व्यंजना, संकेत, इशारा और धमकियों में होता है।
उदाहरण—
सदन में खड़े होकर कहा जाता है—
“उनका समय अब पूरा हो गया है।”
मीडिया में बयान आता है—
“अब नई पीढ़ी नेतृत्व करेगी।”
पार्टी बैठकों में कहा जाता है—
“हम अपनी राह खुद तय करेंगे।”
व्यंजना का अर्थ सीधा है—गुरु, मार्गदर्शक या वयोवृद्ध नेता को किनारे करो।आज की राजनीति यही व्यंजना सीख गई है—“सत्ता आ गई है, अब गुरु की जरूरत नहीं।”
गुरु-भक्ति से गुरु-भक्षण तक—योग्यता का खोना, अवसरवाद का बढ़ना,भारत के राजनीतिक इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ शिष्य ने गुरु को ही मिटाने की कोशिश की।
यह केवल सत्ता का खेल नहीं, यह चिंतन की मृत्यु है।सीजब कोई व्यक्ति सत्ता में आने के बाद—
अपने गुरुओं को भूलता है, अपने मूल संस्कारों से कट जाता है,और स्वयं को ही अंतिम सत्य समझने लगता है,तभी वह गुरु-भक्षण की मानसिकता में प्रवेश कर जाता है।यह मानसिकता 3 प्रकार की होती है—
सत्ता-प्रेरित कृतघ्नता,,जब सत्ता मिलते ही गुरु को पिछड़ा, पुराना या अप्रासंगिक कहा जाता है।
वैचारिक विश्वास-घात,,गुरु ने जिस विचारधारा पर खड़ा किया, शिष्य सत्ता मिलते ही उसी विचार को बेच देता है।
नैतिक संहार,,जहाँ गुरु के प्रति निष्ठा अपराध बन जाती है और अवसरवाद को राजनीति का व्याकरण बना दिया जाता है।
भारतीय राजनीति का मौन संकट—‘यथा राजा तथा प्रजा’ की उलटी दिशा, पहले राजा आदर्श होता था, और प्रजा उसी के अनुसार आचरण करती थी।
आज हाल यह है कि—नेताओं का चरित्र ऐसा हो गया है कि जनता भी उसी शैली में राजनीति को ‘धंधा’ मानने लगी है।जब शिष्य गुरु को ही धोखा देता हुआ सत्ता पर पहुँचता है, तब जनता यह मानने लगती है कि—
“राजनीति लाभ का खेल है, मूल्यों का नहीं।”यह राजनीतिक-अराजकता का सबसे खतरनाक संकेत है।
भाषा का भ्रष्टाचार—जब शब्द तलवार बन जाते हैं
भाषा का मूल उद्देश्य है—संवाद,समझ,विचार,और समाधान।
लेकिन राजनीति में भाषा ,व्यंजना और लक्षणा के माध्यम से हथियार बन गई है।आजचुनावीभाषणों में शब्दों की तलवारें चलती हैं—विश्वासघात के, कटाक्ष के, और गुरु-वध के।राजनीति की यह नई भाषा युवा पीढ़ी को दो संदेश देती है— सत्ता ही सर्वोच्च है।
गुरु, विचार, परंपरा—सब उपयोग की चीजें हैं।
यह भाषा राष्ट्र को नहीं, अराजकता को जन्म देती है।इतिहास साक्षी है—जो गुरु को धोखा देता है, उसका पतन निश्चित है ,रामायण में रावण ने अपने गुरुओं के वरदान को ही विनाश का उपकरण बनाया। महाभारत में कर्ण ने गुरु का अपमान किया।अशोक के समय यही प्रवृत्ति दमन का कारण बनी। मुगल इतिहास में भीषण षड्यंत्र इसी कारण पनपे। यहाँ तक कि आधुनिक भारत में भी कई राजनीतिक दल इस प्रवृत्ति से टूटे और मिटे।
हर युग ने सिद्ध किया है—गुरु का अपमान सत्ता का नहीं, चरित्र का अंत करता है। और जिसके पास चरित्र नहीं, उसकी राजनीति केवल क्षणिक चिंगारी है, तेज आग नहीं।
आधुनिक लोकतंत्र में गुरु-शिष्य की भूमिका—नेतृत्व बनाम प्रबंधन,लोकतंत्र में ‘गुरु’ का अर्थ सिर्फ एक व्यक्ति नहीं होता।
नैतिक संहार,,जहाँ गुरु के प्रति निष्ठा अपराध बन जाती है और अवसरवाद को राजनीति का व्याकरण बना दिया जाता है।
भारतीय राजनीति का मौन संकट—‘यथा राजा तथा प्रजा’ की उलटी दिशा, पहले राजा आदर्श होता था, और प्रजा उसी के अनुसार आचरण करती थी।
आज हाल यह है कि—नेताओं का चरित्र ऐसा हो गया है कि जनता भी उसी शैली में राजनीति को ‘धंधा’ मानने लगी है।जब शिष्य गुरु को ही धोखा देता हुआ सत्ता पर पहुँचता है, तब जनता यह मानने लगती है कि—
“राजनीति लाभ का खेल है, मूल्यों का नहीं।”यह राजनीतिक-अराजकता का सबसे खतरनाक संकेत है।
भाषा का भ्रष्टाचार—जब शब्द तलवार बन जाते हैं
भाषा का मूल उद्देश्य है—संवाद,समझ,विचार,और समाधान।
लेकिन राजनीति में भाषा ,व्यंजना और लक्षणा के माध्यम से हथियार बन गई है।आजचुनावीभाषणों में शब्दों की तलवारें चलती हैं—विश्वासघात के, कटाक्ष के, और गुरु-वध के।राजनीति की यह नई भाषा युवा पीढ़ी को दो संदेश देती है— सत्ता ही सर्वोच्च है।
गुरु, विचार, परंपरा—सब उपयोग की चीजें हैं।
यह भाषा राष्ट्र को नहीं, अराजकता को जन्म देती है।इतिहास साक्षी है—जो गुरु को धोखा देता है, उसका पतन निश्चित है ,रामायण में रावण ने अपने गुरुओं के वरदान को ही विनाश का उपकरण बनाया। महाभारत में कर्ण ने गुरु का अपमान किया।अशोक के समय यही प्रवृत्ति दमन का कारण बनी। मुगल इतिहास में भीषण षड्यंत्र इसी कारण पनपे। यहाँ तक कि आधुनिक भारत में भी कई राजनीतिक दल इस प्रवृत्ति से टूटे और मिटे।
हर युग ने सिद्ध किया है—गुरु का अपमान सत्ता का नहीं, चरित्र का अंत करता है। और जिसके पास चरित्र नहीं, उसकी राजनीति केवल क्षणिक चिंगारी है, तेज आग नहीं।
आधुनिक लोकतंत्र में गुरु-शिष्य की भूमिका—नेतृत्व बनाम प्रबंधन,लोकतंत्र में ‘गुरु’ का अर्थ सिर्फ एक व्यक्ति नहीं होता।
गुरु—मूल्य,विचारधारा,संगठन,परंपरा,और राजनीति का नैतिक आधार होता है।जब कोई शिष्य इस आधार को काट देता है,तब वह नेता नहीं रहता—वह प्रबंधक बन जाता है। और प्रबंधक सिर्फ सत्ता की बिसात चलाता है।
व्यंजना में छिपा सत्य—यह समय आत्म-अनुशासन का आह्वान कर रहा है,राजनीति का यह संकट हमें बताता है कि—सत्ता बढ़ेगी तो चरित्र की परीक्षा भी कठोर होगी। नेतृत्व मिलेगा तो विनम्रता की आवश्यकता भी उतनी ही बढ़ेगी। बढ़ते कद के साथ अहंकार नहीं, आत्म-अनुशासन भी बढ़ना चाहिए।
व्यंजना कहती है—“सत्ता की खिड़की से दिखने वाला संसार कभी स्थायी नहीं होता।”पर गुरु का दिया दृष्टिकोण—“अंधकार में भी दीपक की लौ बनकर मार्ग दिखाता है।”
राजनीतिक दलों के लिए चेतावनी—कृतघ्न शिष्य सबसे बड़ा संकट,आज अधिकांश राजनीतिक द
अंतरिक फूट,वंशवाद,स्वार्थी गठबंधन,अवसरवादी विद्रोह,से पीड़ित हैं।कारण एक ही है—गुरु-शिष्य परंपरा का क्षय।
जब संगठन ‘गुरु’ को सम्मान नहीं देता,
तब शिष्य भी संगठन को सम्मान नहीं देता।
और जहाँ सम्मान नहीं, वहाँ अनुशासन नहीं।
जहाँ अनुशासन नहीं, वहाँ राष्ट्र का हित नहीं।
राष्ट्रवादी दृष्टिकोण—सत्ता से बड़ा ‘संस्कार’ है
राष्ट्रवाद की धुरी है—संस्कार, चरित्र, और कृतज्ञता।
सत्ता राष्ट्रवाद नहीं है।सत्ता राष्ट्रसेवा का माध्यम है।
कृतघ्नता राष्ट्रवाद को खाती है।गुरु-वध की मानसिकता राष्ट्र को खोखला करती है।
और चरित्रहीन नेतृत्व राष्ट्र को दिशा-हीन बना देता है।
व्यंजना में छिपा सत्य—यह समय आत्म-अनुशासन का आह्वान कर रहा है,राजनीति का यह संकट हमें बताता है कि—सत्ता बढ़ेगी तो चरित्र की परीक्षा भी कठोर होगी। नेतृत्व मिलेगा तो विनम्रता की आवश्यकता भी उतनी ही बढ़ेगी। बढ़ते कद के साथ अहंकार नहीं, आत्म-अनुशासन भी बढ़ना चाहिए।
व्यंजना कहती है—“सत्ता की खिड़की से दिखने वाला संसार कभी स्थायी नहीं होता।”पर गुरु का दिया दृष्टिकोण—“अंधकार में भी दीपक की लौ बनकर मार्ग दिखाता है।”
राजनीतिक दलों के लिए चेतावनी—कृतघ्न शिष्य सबसे बड़ा संकट,आज अधिकांश राजनीतिक द
अंतरिक फूट,वंशवाद,स्वार्थी गठबंधन,अवसरवादी विद्रोह,से पीड़ित हैं।कारण एक ही है—गुरु-शिष्य परंपरा का क्षय।
जब संगठन ‘गुरु’ को सम्मान नहीं देता,
तब शिष्य भी संगठन को सम्मान नहीं देता।
और जहाँ सम्मान नहीं, वहाँ अनुशासन नहीं।
जहाँ अनुशासन नहीं, वहाँ राष्ट्र का हित नहीं।
राष्ट्रवादी दृष्टिकोण—सत्ता से बड़ा ‘संस्कार’ है
राष्ट्रवाद की धुरी है—संस्कार, चरित्र, और कृतज्ञता।
सत्ता राष्ट्रवाद नहीं है।सत्ता राष्ट्रसेवा का माध्यम है।
कृतघ्नता राष्ट्रवाद को खाती है।गुरु-वध की मानसिकता राष्ट्र को खोखला करती है।
और चरित्रहीन नेतृत्व राष्ट्र को दिशा-हीन बना देता है।
राजनीति को चरित्र चाहिए, छल नहीं,
आज आवश्यकता है—
राजनीति की भाषा शुद्ध हो ,शब्दों में सम्मान, विचार और मर्यादा लौटे। व्यंजना का उपयोग जनहित में हो, षड्यंत्र में नहीं। गुरु-शिष्य संस्कृति मजबूत बने ,क्योंकि यही भारतीय नेतृत्व की आत्मा है।कृतघ्नता को राजनीतिक अपराध माना जाए
क्योंकि जो गुरु को खाता है, वह राष्ट्र को भी खाएगा।
नैतिकता और विचारधारा की पुनर्स्थापना
ताकि नेतृत्व अवसरवाद नहीं, राष्ट्रवाद से संचालित हो।
अंतिम व्यंजना—जो गुरु को समाप्त करने का विचार करता है,वह स्वयं अपने ही अंत का प्रारम्भ कर देता है।
राजनीति में सबसे बड़ा शस्त्र सत्ता नहीं,
चरित्र है।और चरित्र का पहला आधार है—
गुरु-सम्मान।
आज आवश्यकता है—
राजनीति की भाषा शुद्ध हो ,शब्दों में सम्मान, विचार और मर्यादा लौटे। व्यंजना का उपयोग जनहित में हो, षड्यंत्र में नहीं। गुरु-शिष्य संस्कृति मजबूत बने ,क्योंकि यही भारतीय नेतृत्व की आत्मा है।कृतघ्नता को राजनीतिक अपराध माना जाए
क्योंकि जो गुरु को खाता है, वह राष्ट्र को भी खाएगा।
नैतिकता और विचारधारा की पुनर्स्थापना
ताकि नेतृत्व अवसरवाद नहीं, राष्ट्रवाद से संचालित हो।
अंतिम व्यंजना—जो गुरु को समाप्त करने का विचार करता है,वह स्वयं अपने ही अंत का प्रारम्भ कर देता है।
राजनीति में सबसे बड़ा शस्त्र सत्ता नहीं,
चरित्र है।और चरित्र का पहला आधार है—
गुरु-सम्मान।
प्रासंगिकता की कसौटी पर खरा उतरने वाला संपादकीय।
जवाब देंहटाएंBhut gyan vardhak
जवाब देंहटाएंआशुतोष मिश्रा बहुत अच्छा लेख
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