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कायर कौन? राहुल बनाम आरएसएस — वैचारिक युद्ध का विश्लेषण
भारतीय राजनीति के परिदृश्य में “कायर” शब्द आज एक नया आयाम ले चुका है। राहुल गांधी ने अपने दक्षिण अमेरिका दौरे में कहा — “आरएसएस की विचारधारा के मूल में कायरता है।”यह आरोप उतना ही हास्यास्पद है, जितना कि समुद्र को यह कहना कि उसमें नमी नहीं।वास्तव में, यह प्रश्न अब पलटकर भारत के विवेक से पूछना चाहिए —“कायर कौन? — राहुल या आरएसएस?”
वैचारिक साहस बनाम राजनीतिक भ्रम
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का जन्म ही उस समय हुआ जब भारत ब्रिटिश दासता की जंजीरों में जकड़ा था।संघ ने अपने पहले दिन से कहा — “हम भारत की आत्मा को, उसके सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को पुनर्जीवित करेंगे।”यह उद्घोष किसी राजनैतिक सुविधा से नहीं, बल्कि वैचारिक आस्था से निकला था।संघ को 1948 में प्रतिबंध झेलना पड़ा, 1975 में आपातकाल में जेलें भरी गईं, पर उसने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।
दूसरी ओर, राहुल गांधी की राजनीति परिवर्तनशील मौसम की तरह है —
कभी वे शिवभक्त बनते हैं, कभी अल्पसंख्यक रक्षक,कभी भारत जोड़ो यात्रा में अहिंसक दार्शनिक, और विदेशों में जाकर भारतीय लोकतंत्र की निंदा करने वाले आलोचक।यह विचार नहीं, सुविधाजनक अभिनय है।
राष्ट्रभक्ति बनाम आत्म-प्रचार
आरएसएस का कार्यकर्ता किसी कैमरे की प्रतीक्षा नहीं करता।वह बाढ़ में राहत पहुँचाता है, युद्ध में रक्तदान करता है, और चुनाव के बाद भी गांवों में राष्ट्रगीत सिखाता है।यह राष्ट्रभक्ति की निःशब्द सेवा है — जहाँ ताली नहीं, त्याग होता है।
राहुल गांधी की राजनीति में राष्ट्रभक्ति नहीं, आत्म-प्रचार है।वह तब बोलते हैं जब कैमरे चालू हों,पर संसद में जब भारत की सुरक्षा, आतंकवाद, या हिंदू धर्म की अस्मिता पर प्रश्न उठते हैं, तब वे मौन रहते हैं या विदेश रवाना हो जाते हैं।यह वही मौन है जो “कायरता” की सबसे गहरी परिभाषा है —सत्य के समय मौन और असत्य के समय मुखर।
संगठन का बल बनाम व्यक्ति की लाचारी
आरएसएस अपने संगठन में “मैं” को मिटाकर “हम” का निर्माण करता है।
संघ के स्वयंसेवक का कोई निजी एजेंडा नहीं — वह भारत माता के नाम पर जीता है।राहुल गांधी का पूरा राजनीतिक अस्तित्व वंश पर टिका है।कांग्रेस पार्टी उनके बिना जैसे दिशाहीन है, और वे पार्टी के बिना विचारहीन।
जो व्यक्ति संगठन पर नहीं, वंश पर निर्भर हो — वह कायरता का नहीं तो क्या कहलाएगा?
विदेश से भारत पर वार
भारत के लोकतंत्र की आलोचना संसद में हो — यह लोकतंत्र का अधिकार है।
पर जब वही आलोचना कोई नेता विदेशी मंचों से करता है,जहाँ भारत का कोई उत्तर नहीं दे सकता,तब वह राष्ट्र की गरिमा पर वार करता है।राहुल गांधी ने लंदन, अमेरिका, कोलंबिया में बार-बार यही किया।यह साहस नहीं, राष्ट्रविरोधी कायरता है।
कायरता की असली परिभाषा
कायरता केवल डर नहीं है; यह है — सत्य जानते हुए भी उसे न कहना।जो व्यक्ति अपने देश, धर्म और संस्कृति के मूल प्रश्नों पर मौन रहे,और विरोधी विचार के आगे आत्मसमर्पण कर दे,वह वैचारिक रूप से कायर कहलाता है।आरएसएस ने चाहे कितनी भी आलोचना झेली हो,पर उसने कभी अपने राष्ट्रदर्शन — “वसुधैव कुटुम्बकम्” — से मुंह नहीं मोड़ा। राहुल गांधी ने बार-बार भारत की पहचान पर प्रश्नचिह्न लगाया —कभी “भारत में नफरत है”, कभी “लोकतंत्र खत्म है” कहकर।
परंतु जिन देशों में वे यह कहते हैं, वहाँ लोकतंत्र की परिभाषा भी भारत से उधार ली गई है।
निष्कर्ष : कौन कायर?
इतिहास कहता है —कायर वह नहीं जो सत्ता से बाहर हो; कायर वह है जो सत्य से बाहर हो जाए।इस कसौटी पर आरएसएस राष्ट्र के आत्मबल का प्रतीक है,
और राहुल गांधी एक वैचारिक पलायनवादी,जो हर आलोचना से पहले अपना पासपोर्ट संभाल लेते हैं। कायर वही है जो अपने देश की धरती पर सवाल पूछने से डरता है और विदेश की जमीन पर अपने देश की प्रतिष्ठा बेच देता है।
अंततः सत्य यही है —“जो राष्ट्र के लिए लड़े, वह स्वयंसेवक है; जो राष्ट्र से भागे, वह कायर है।”

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