शिवसेना का" सामना" स्वयं किसी निष्पक्ष राष्ट्रवादी चिंतक का मंच नहीं, बल्कि एक दल-विशेष का पार्टी ऑर्गन है, जो आज मुख्यतः भाजपा और संघ विरोध को ही अपनी विचार-धारा मान बैठा है।
नितिन नबीन पर लिखा गया सामना का संपादकीय भाजपा की आलोचना से अधिक, अपनी खोती राजनीतिक ज़मीन की कुंठा का प्रक्षेपण प्रतीत होता है। शुरुआत में ही साफ लिखें:“सामना का यह लेख भाजपा की संगठनात्मक कार्यशैली पर टिप्पणी कम, और शिवसेना (उद्धव गुट) की भाजपा-विरोधी राजनीतिक व्याकुलता की अभिव्यक्ति-पत्र अधिक है।”नितिन नबीन पर हमला या कार्यकर्ता संस्कृति पर?सामना यह तथ्य छिपा जाता है कि नितिन नबीन राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाने से पहले लगातार कई बार विधायक, मंत्री और विद्यार्थी परिषद–भाजयुमो के संगठनात्मक पदों पर रहकर एक लंबा कार्यकर्ता-पथ तय कर चुके हैं।भाजपा में “अल्प-परिचित चेहरा” का ऊपर आना, वास्तव में कार्यकर्ता–आधारित पार्टी संरचना की विशेषता है, जबकि क्षेत्रीय परिवारवादी दलों में शीर्ष पद प्रायः वंशानुगत होते हैं।
आप एक वाक्य ऐसे रख सकते हैं:“जिस नियुक्ति को सामना ‘मोदी-शाह की प्रयोगशाला’ कहकर खारिज करता है, वही नियुक्ति भारतीय दलों में दुर्लभ उस परंपरा की मिसाल है, सामना का बौद्धिक दुर्बलता ही है जो अमित शाह और मोदी को अरस्तु और आइंस्टीन की खोजी बताती है.
जहाँ परिवार नहीं, कार्यकर्ता शीर्ष पर पहुँचता है।”संघ–भाजपा संबंध पर सामना की आधी सच्चाई सामना यह लिखता है कि संघ चाहता था कि पार्टी अध्यक्ष सरकार से ऊपर हो, और सत्ता पर वैचारिक नियंत्रण रखे — यह बात स्वयं संघ की लोकतांत्रिक-संगठनात्मक समझ का प्रमाण है, जिसे सामना अपने निष्कर्ष में उल्टा घुमा देता है।नितिन नबीन संघ परंपरा से आए संगठन-पुरुष हैं; ऐसे में यह कहना कि उनकी नियुक्ति संघ के उद्देश्य के विरुद्ध है, तथ्यगत और तर्कगत दोनों स्तर पर कमज़ोर आरोप है।
एक पंक्ति आप ऐसे जोड़ सकते हैं:“संघ का आग्रह सदैव रहा है कि संगठन सत्ता से ऊँचा रहे; नितिन नबीन जैसे संगठन-पृष्ठभूमि के कार्यकर्ता की नियुक्ति इस दृष्टि के अधिक निकट है, बनिस्बत उन दलों के जहाँ अख़बार से लेकर पार्टी तक सब कुछ एक ही परिवार की विरासत मान लिया गया है।”लोकतंत्र पर पाठ पढ़ाने की विडंबना सामना, भाजपा को ‘लोकतंत्र-विहीन’ कहता है, पर स्वयं शिवसेना का इतिहास व्यक्ति केंद्रित, परिवार-केंद्रित राजनीति और सड़क-शैली आंदोलनवाद से भरा है, जिसे अकादमिक अध्ययन भी “नैटिविस्ट/रीजनलिस्ट” प्रवृत्ति बताते हैं।
जिस भाजपा पर वह “धक्कातंत्र” का आरोप लगाता है, उसी भाजपा में आज भी प्रदेश से लेकर केंद्र तक भारी आंतरिक प्रतिस्पर्धा और वैचारिक विमर्श मौजूद है; नेतृत्व परिवर्तन शांतिपूर्वक संगठनात्मक निर्णयों से होते हैं, न कि सड़क पर टकराव से।एक तीखा वाक्य:“जो दल दशकों तक ‘एक नेता, एक परिवार, एक मुखपत्र’ की संस्कृति पर फला-फूला हो, उसके मुखपत्र से लोकतंत्र की शिक्षा सुनना भारतीय राजनीति की सबसे करारी विडंबनाओं में गिना जाएगा।”
राष्ट्रवादी निष्कर्ष की लाइन अंत में, राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से दो–तीन पंक्तियाँ ऐसे रखिए:“भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दृष्टि से प्रश्न यह नहीं कि नितिन नबीन मोदी–शाह के ‘प्रयोग’ हैं या नहीं; प्रश्न यह है कि क्या एक सामान्य कार्यकर्ता शीर्ष पर पहुँच सकता है, और क्या पार्टी संगठन सत्ता से ऊपर अपनी वैचारिक भूमिका निभा सकता है।” यह भाजपा में ही सम्भव है सामना जी!
“सामना का लेख भाजपा विरोध का उत्तेजित साहित्य तो हो सकता है, पर राष्ट्रवाद का प्रामाणिक विश्लेषण नहीं; क्योंकि जहाँ वह कार्यकर्ता के उदय को प्रयोग कहता है, वहीं राष्ट्रवादी दृष्टि में यह लोकतांत्रिक संगठन संस्कृति की स्वाभाविक परिणति है।”
"सामना " दिगभ्रमित, अंतहीन वैचारिकी की अंधी गली की यात्रा का एक हिस्सा है

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