वंदे मातरम् और सहस्राब्दी चेतना ! - कौटिल्य का भारत

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मंगलवार, 16 दिसंबर 2025

वंदे मातरम् और सहस्राब्दी चेतना !

 

वंदे मातरम् और सहस्राब्दी चेतना




कालजयी रचना भारत जैसे प्राचीन राष्ट्र के जीवन-सूत्र को यदि किसी एक मंत्र में बांधा जाए, तो वह मंत्र “वंदे मातरम्” है। यह केवल दो शब्दों का उद्घोष नहीं, बल्कि हजारों वर्षों की सभ्यतागत यात्रा, सांस्कृतिक चेतना और राष्ट्रीय आत्मबोध का घोष है। “वंदे मातरम्” में भारत की सहस्राब्दी चेतना—अर्थात हजार वर्षों से प्रवहमान राष्ट्र-चेतना—अपने पूर्ण वैभव के साथ अभिव्यक्त होती है। यही कारण है कि यह गीत जितना स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक है, उतना ही वह आधुनिक भारत की आत्मा का दर्पण भी है।

सहस्राब्दी चेतना का अर्थ,सहस्राब्दी चेतना का आशय केवल कालगणना से नहीं है। यह उस निरंतरता का बोध है, जिसमें भारत ने अनेक आक्रमणों, उपनिवेशवाद, सामाजिक विघटन और राजनीतिक दासता के बावजूद अपनी सांस्कृतिक आत्मा को अक्षुण्ण रखा। वेदों की ऋचाओं से लेकर उपनिषदों के चिंतन, बुद्ध और महावीर की करुणा, शंकराचार्य की अद्वैत दृष्टि, भक्ति आंदोलन की लोकधारा और आधुनिक राष्ट्रवाद—यह सब मिलकर एक ऐसी चेतना रचते हैं, जो समय की सीमाओं से परे है। “वंदे मातरम्” इसी चेतना का आधुनिक शब्द-संस्कार है।

बंकिमचंद्र और राष्ट्रगीत की उत्पत्ति

“वंदे मातरम्” की रचना बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 19वीं सदी में की, जब भारत औपनिवेशिक दासता की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। ‘आनंदमठ’ उपन्यास में यह गीत केवल साहित्यिक कृति नहीं, बल्कि राजनीतिक और आध्यात्मिक घोष बनकर उभरा। बंकिमचंद्र ने मातृभूमि को देवी के रूप में देखा—अन्नदा, शस्यश्यामला, ज्ञान और बल की अधिष्ठात्री। यह दृष्टि भारत की उस प्राचीन परंपरा से जुड़ती है, जहां भूमि को केवल भूगोल नहीं, जीवंत माता माना गया है।

मातृभूमि की अवधारणा: पश्चिम से भिन्न भारतीय दृष्टि

पश्चिमी राष्ट्रवाद भूमि, नस्ल या राजनीतिक समझौते पर आधारित रहा है, जबकि भारतीय राष्ट्रबोध सांस्कृतिक और आध्यात्मिक है। “माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:” का भाव हमारे शास्त्रों में मिलता है। “वंदे मातरम्” इसी भाव का आधुनिक घोष है, जहां राष्ट्र के प्रति प्रेम उपासना का रूप ले लेता है। यह पूजा किसी संकीर्ण धार्मिक आग्रह से नहीं, बल्कि कृतज्ञता और कर्तव्य-बोध से उपजती है।

स्वतंत्रता संग्राम में “वंदे मातरम्”

बीसवीं सदी के प्रारंभ में जब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन जनांदोलन बना, तब “वंदे मातरम्” उसकी धड़कन बन गया। कांग्रेस के अधिवेशनों से लेकर क्रांतिकारियों के फांसीघाट तक, यह गीत साहस और संकल्प का प्रतीक रहा। अंग्रेजी शासन ने इस पर प्रतिबंध लगाया, क्योंकि वे जानते थे कि यह गीत भारतीयों में आत्मसम्मान और एकता का संचार करता है। लाठी-गोलियों के बीच “वंदे मातरम्” का उच्चारण सत्ता के लिए चुनौती था।

सहस्राब्दी चेतना और बलिदान की परंपरा

भारत की सहस्राब्दी चेतना बलिदान की चेतना है। राजा दशरथ से लेकर गुरु गोविंद सिंह, रानी लक्ष्मीबाई से लेकर भगत सिंह—यह परंपरा निरंतर प्रवाहित रही है। “वंदे मातरम्” इसी बलिदानी परंपरा को शब्द देता है। यह गीत हमें स्मरण कराता है कि राष्ट्र केवल अधिकारों का संकलन नहीं, बल्कि कर्तव्यों का व्रत है। मातृभूमि के लिए त्याग, सेवा और समर्पण—यही इसकी आत्मा है।

आज़ादी के बाद का भारत और “वंदे मातरम्”

स्वतंत्रता के बाद भारत ने संविधान, लोकतंत्र और आधुनिक संस्थाओं का निर्माण किया। इस प्रक्रिया में कभी-कभी सांस्कृतिक प्रतीकों को औपचारिकता के दायरे में सीमित करने का प्रयास भी हुआ। किंतु “वंदे मातरम्” जनमानस से कभी अलग नहीं हुआ। विद्यालयों में, सामाजिक आंदोलनों में, आपदाओं के समय और खेल के मैदानों में—यह गीत भारतीयों को एक सूत्र में बांधता रहा।

समावेशी राष्ट्रबोध

“वंदे मातरम्” को लेकर समय-समय पर विवाद भी हुए। किंतु सहस्राब्दी चेतना का मर्म समावेशिता है। भारत की संस्कृति ‘एकम् सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ का उद्घोष करती है। राष्ट्र के प्रति श्रद्धा किसी एक पंथ या समुदाय की बपौती नहीं। “वंदे मातरम्” का भाव सभी भारतीयों को जोड़ता है—भाषा, क्षेत्र और मत से परे। यह गीत किसी के विरुद्ध नहीं, बल्कि भारत के पक्ष में है।

वैश्वीकरण के युग में सहस्राब्दी चेतना

आज का भारत वैश्वीकरण, तकनीक और उपभोक्तावाद के दौर से गुजर रहा है। इस परिवर्तन में कहीं न कहीं जड़ों से कटने का खतरा भी है। ऐसे समय में “वंदे मातरम्” जैसी अवधारणाएं स्मरण कराती हैं कि आधुनिकता का अर्थ अपनी परंपरा से विमुख होना नहीं है। सहस्राब्दी चेतना हमें सिखाती है कि हम नवाचार करें, परंतु आत्मा को सुरक्षित रखें।

युवाओं के लिए संदेश

भारत की युवा पीढ़ी विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी है। उनके हाथों में भारत का भविष्य है। “वंदे मातरम्” उनके लिए केवल इतिहास का गीत नहीं, बल्कि प्रेरणा का स्रोत है। यह उन्हें याद दिलाता है कि सफलता केवल व्यक्तिगत नहीं, राष्ट्रीय भी होती है। स्टार्टअप, विज्ञान, सेना, शिक्षा या सेवा—हर क्षेत्र में राष्ट्र के प्रति कर्तव्य-बोध ही सच्ची देशभक्ति है।

सहकार, समाज और राष्ट्र

भारत की सहस्राब्दी चेतना ‘सह’ से चलती है—सहजीवन, सहकार और समरसता। “वंदे मातरम्” इसी सामूहिक चेतना को पुष्ट करता है। जब समाज एक-दूसरे के साथ खड़ा होता है, तभी राष्ट्र सशक्त बनता है। सहकारिता, ग्राम स्वराज और आत्मनिर्भरता जैसे विचार इसी चेतना की आधुनिक अभिव्यक्तियां हैं।

 कालातीत मंत्र

“वंदे मातरम्” समय का कैदी नहीं है। यह अतीत की स्मृति, वर्तमान की प्रेरणा और भविष्य की दिशा—तीनों है। सहस्राब्दी चेतना के साथ जुड़कर यह गीत हमें बताता है कि भारत केवल एक राजनीतिक इकाई नहीं, बल्कि एक जीवंत संस्कृति है। जब तक भारत की नदियां बहेंगी, पर्वत अडिग रहेंगे और लोग अपने कर्तव्यों को पहचानेंगे—तब तक “वंदे मातरम्” का स्वर इस भूमि पर गूंजता रहेगा।

वंदे मातरम्!

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