लोकसभा का अर्थ न जानने वालों को चुनाव लड़ने की अनुमति न दे चुनाव आयोग
भारतीय लोकतंत्र आज एक गहरी विडंबना से जूझ रहा है। देश में चुनाव नियमित हो रहे हैं, मतदान प्रतिशत बढ़ रहा है, लेकिन जनप्रतिनिधियों की संवैधानिक समझ लगातार गिरती जा रही है। यह स्थिति केवल चिंता की नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा के लिए खतरे की घंटी है।
आज चुनाव मैदान में ऐसे अनेक प्रत्याशी दिखाई देते हैं, जो लोकसभा और विधानसभा का मूल अर्थ तक नहीं बता सकते, किंतु पैसे, शराब, भोज और अन्य प्रलोभनों के माध्यम से मतदाताओं को प्रभावित करने में पूरी तरह सक्षम हैं। यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि जनादेश का बाज़ारीकरण है।
लोकसभा और विधानसभा केवल सत्ता प्राप्त करने के मंच नहीं हैं। ये संस्थाएँ जनता की संप्रभुता का प्रतीक हैं, जहाँ कानून बनते हैं, सरकार से सवाल पूछे जाते हैं और संविधान को जीवित रखा जाता है। यदि कोई प्रत्याशी यह भी नहीं जानता कि सांसद और विधायक की भूमिका क्या है, तो वह जनसेवक नहीं, लोकतंत्र पर बोझ है।
यह मान लेना कि “चुनाव जीत लिया तो सब ठीक” — लोकतांत्रिक सोच का पतन है। चुनाव जीतना केवल प्रक्रिया का पहला चरण है; असली कसौटी सदन के भीतर होती है। वहाँ ज्ञान चाहिए, विवेक चाहिए और संविधान के प्रति निष्ठा चाहिए। अज्ञान के साथ सत्ता में पहुँचना लोकतंत्र में भी अपराध जैसा ही है।
आज चुनावी प्रचार में विचार, नीति और कार्यक्रम लगभग गायब हो चुके हैं। मंचों से संविधान की बात नहीं होती, क्योंकि बोलने वालों ने शायद उसे कभी पढ़ा ही नहीं। भाषण शोर बन गए हैं और बहसें भीड़ जुटाने का औज़ार। यह स्थिति संसद को अखाड़ा और लोकतंत्र को तमाशा बना रही है।
ऐसे में भारत के चुनाव आयोग की भूमिका केवल चुनाव कराने वाले प्रबंधक की नहीं रह जाती, बल्कि लोकतंत्र के संरक्षक की बन जाती है। चुनाव आयोग के पास पर्याप्त संवैधानिक अधिकार हैं कि वह चुनावी शुचिता बनाए रखे। अब समय आ गया है कि वह एक साहसिक और ऐतिहासिक पहल करे।
यह अत्यंत आवश्यक है कि चुनाव आयोग ऐसी व्यवस्था लागू करे कि जो प्रत्याशी लोकसभा और विधानसभा का मूल संवैधानिक अर्थ, दायित्व और भूमिका स्पष्ट रूप से न बता सके, उसका चुनाव प्रचार रद्द किया जाए। यह कोई अकादमिक परीक्षा नहीं होगी, बल्कि न्यूनतम संवैधानिक चेतना की जाँच होगी।
जिस प्रकार ड्राइविंग के लिए लाइसेंस आवश्यक है, न्यायाधीश बनने के लिए योग्यता आवश्यक है और प्रशासनिक सेवा के लिए परीक्षा आवश्यक है—उसी प्रकार लोकतंत्र के सर्वोच्च मंच पर बैठने के लिए संविधान की बुनियादी समझ क्यों अनिवार्य न हो?
कुछ लोग इसे लोकतंत्र पर रोक कह सकते हैं, पर सच यह है कि यह लोकतंत्र की रक्षा है। लोकतंत्र का अर्थ यह नहीं कि कोई भी व्यक्ति, बिना समझ और बिना जिम्मेदारी के, सत्ता तक पहुँच जाए। लोकतंत्र का अर्थ है—सक्षम प्रतिनिधि, जागरूक मतदाता और मजबूत संस्थाएँ।
यह जिम्मेदारी केवल चुनाव आयोग की ही नहीं, जनता की भी है। मतदाता को यह पूछना होगा कि उसका प्रतिनिधि संसद में क्या बोलेगा, क्या समझता है और किस विचार का प्रतिनिधित्व करता है। जिस दिन मतदाता विचार पूछने लगेगा, उस दिन पैसा अपने आप हारने लगेगा।
भारत को सांसद और विधायक संख्या में नहीं, संवैधानिक चेतना में चाहिए। ऐसे प्रतिनिधि चाहिए जो सत्ता के नहीं, संविधान के सेवक हों। जो संसद को पद नहीं, कर्तव्य समझें।
लोकसभा और विधानसभा का अर्थ न जानने वाले, केवल प्रलोभन बाँटकर राजनीति करने वाले लोग लोकतंत्र के निर्माता नहीं हो सकते। अब समय आ गया है कि चुनाव आयोग अज्ञान और पैसे की राजनीति पर रोक लगाए और विचार व संविधान की राजनीति को पुनः स्थापित करे।
क्योंकि लोकतंत्र चुनाव जीतने से नहीं,संविधान को समझने और निभाने से जीवित रहता है।

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