शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

डीजीपी हरियाणा का कदम, पुलिसिंग के आत्मनिवेदन की प्रथम प्रयोग शाला

 




जनसेवक का मनोविज्ञान ही राष्ट्र की आत्मा
सम्पादकीय : “टेबल छोटी, दिल बड़ा — पुलिस व्यवस्था में संवेदना का नया संविधान”
 राजेन्द्र नाथ तिवारी


हरियाणा के पुलिस महानिदेशक ओ.पी. सिंह का हालिया आदेश — “टेबल छोटी करो, कुर्सी से तौलिया हटाओ और विज़िटर्स रूम बनाओ” — केवल एक प्रशासनिक निर्देश नहीं, बल्कि भारतीय पुलिस व्यवस्था के इतिहास में एक सांस्कृतिक सुधार की शुरुआत है। यह आदेश हमें ब्रिटिश साम्राज्य की उस ‘सत्ता-केंद्रित पुलिस’ की जड़ों तक ले जाता है, जिसने नागरिक और शासन के बीच अविश्वास की एक ऊँची दीवार खड़ी कर दी थी। अब, हरियाणा से एक ऐसी हवा चली है जो उस दीवार को गिराने की कोशिश कर रही है।

 औपनिवेशिक मानसिकता से जनतांत्रिक पुलिस की ओर,भारतीय पुलिस व्यवस्था की बुनियाद 1861 के पुलिस अधिनियम से पड़ी, जिसे अंग्रेजों ने अपने शासन कीरक्षा के लिए बनाया था, जनता की सुरक्षा के लिए नहीं।इस अधिनियम ने पुलिस को ‘राजशक्ति का औज़ार’ बनाया, न कि ‘लोकसेवा का माध्यम’।नतीजा यह हुआ कि स्वतंत्र भारत में भी पुलिस वही वर्दी पहनकर जनता से दूर रही — भाषा, व्यवहार और स्थान सब में ‘ऊँचाई’ बनी रही।थाना जनसाधारण के लिए भय का प्रतीक बन गया, न कि सहारा।ओ.पी. सिंह का आदेश इस मानसिकता के विरुद्ध एक प्रतीकात्मक बगावत है।‘टेबल छोटी’ करने का अर्थ केवल फर्नीचर बदलना नहीं, बल्कि दृष्टिकोण बदलना है — अब अफसर जनता के ऊपर नहीं, सामने बैठकर सुनेगा।‘तौलिया हटाना’ उस दिखावटी रजवाड़ेपन का अंत है, जो लोकसेवक को ‘साहब’ बना देता था।और ‘विज़िटर्स रूम बनाना’ नागरिक गरिमा का पुनर्स्थापन है— कि शिकायतकर्ता अब गलियारे में खड़ा याचक नहीं, बल्कि लोकतंत्र का सहभागी है।

 “पुलिस बिजली के तार जैसी हो — कनेक्शन दे, झटका नहीं!”ओ.पी. सिंह का यह कथन भारतीय प्रशासनिक शब्दावली में एक नया मुहावरा बन सकता है।बिजली का तार तब उपयोगी है जब वह रोशनी देता है, न कि झटका।जनता को पुलिस से ‘कनेक्शन’ चाहिए — सहयोग, सुरक्षा और न्याय का।झटका केवल उन्हें लगना चाहिए जो जनता का खून चूसते हैं — यानी भ्रष्ट, अपराधी और अत्याचारी।
यह कथन उस आदर्श की पुनर्स्मृति है जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में निहित है — “राज्य ऐसी व्यवस्था स्थापित करे जो समाज में न्याय, समानता और करुणा का वातावरण बनाए।”

 राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य : हरियाणा से दिल्ली तक,हरियाणा की यह पहल केवल एक राज्य की नीति नहीं, पूरे भारत के लिए एक मॉडल बन सकती है।देश के लगभग हर हिस्से में पुलिस-जनता संबंध तनावपूर्ण हैं। कभी पुलिस अत्याचार, कभी रिश्वत, कभी अनसुनी शिकायतें — यह सब उस ‘मानवहीन तंत्र’ की निशानियाँ हैं जहाँ वर्दी,भावना पर भारी पड़ गई है।यदि हर राज्य अपने पुलिस अधिनायकत्व को ‘पुलिस लोकायुक्त’ की दिशा में मोड़े — यानी पारदर्शी, संवेदनशील और जवाबदेह — तो भारत की प्रशासनिक संस्कृति में नया अध्याय खुलेगा।

हरियाणा मॉडल के तीन स्तंभ हैं —1. संवाद का वातावरण: विज़िटर रूम और नागरिक संपर्क कार्यक्रम।2. व्यवहारिक समानता: छोटी टेबल और बिना तौलिये की कुर्सी — प्रतीकात्मक पर प्रभावी संकेत।3. नैतिक दृढ़ता: जो जनता से ठीक से पेश नहीं आता, उसे दफ्तर नहीं मिलना चाहिए।यदि यह मॉडल दिल्ली, लखनऊ, पटना या भोपाल तक पहुँचे,तो यह केवल पुलिस सुधार नहीं, लोकतंत्र में व्यवहार सुधार की लहर होगी।

 केवल आदेश नहीं, दृष्टि चाहिए,इतिहास गवाह है — भारत में कई सुधार कागज़ पर रह गए क्योंकि उनमें “निगरानी और मनोविज्ञान” की निरंतरता नहीं थी।ओ.पी. सिंह का आदेश तभी सफल होगा जब यह केवल दिखावटी स्वच्छता नहीं, बल्कि आंतरिक स्वभाव परिवर्तन बन सके।इसके लिए तीन कदम अनिवार्य हैं —

1. प्रशिक्षण: हर रैंक को ‘संवेदनशीलता’ का प्रशिक्षण मिले — यानी “कानून लागू करने” से पहले “मानव को समझने” की कला सिखाई जाए।2. मूल्यांकन: थाने की सफलता केवल अपराध-नियंत्रण से नहीं, जन-संतोष से मापी जाए।3. पारदर्शिता: हर थाने में सार्वजनिक फीडबैक डिस्प्ले और तृतीय-पक्ष ऑडिट हो।

 एक छोटी टेबल, बड़ा संदेश,कई बार छोटे प्रतीक बड़ी व्यवस्थाओं को बदल देते हैं।
सत्ता और जनता के बीच जो ‘टेबल’ खड़ी थी, वह केवल लकड़ी का टुकड़ा नहीं थी — वह मानसिक दूरी थी।अब जब वह टेबल छोटी हो रही है, तो यह केवल फर्नीचर का नहीं, फासले का पुनर्संयोजन है।यह संकेत है कि अब शासन जनता से ऊँचाई पर नहीं, बगल में बैठकर बात करना चाहता है।

  “जनसेवक का मनोविज्ञान ही राष्ट्र की आत्मा है”,पुलिस यदि जनता के प्रति करुणा, सम्मान और संवाद का भाव रखेगी,तो कानून का भय स्वतः प्रतिष्ठा में बदल जाएगा।हरियाणा का यह प्रयोग प्रशासनिक सुधार नहीं, बल्कि संवेदनात्मक पुनर्जागरण है। जिस दिन भारत के हर थाने में टेबल छोटी और दिल बड़ा होगा,
उस दिन लोकतंत्र सच में जीवंत होगा — क्योंकि
वर्दी के भीतर भी एक नागरिक होता है, और जनता के भीतर भी एक प्रहरी।




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