रविवार, 12 अक्टूबर 2025

डॉ लोहिया के उत्तराधिकारी लोहिया को मानते है, पर लोहिया की नहीं मानते!

 डॉ. राममनोहर लोहिया भारतीय राजनीति के उन दार्शनिक नेताओं में रहे, जिनका आदर्श सिर्फ सत्ता प्राप्ति नहीं, बल्कि समाज को जागरूक, संवेदनशील और समावेशी बनाना था। आज, जब उनकी जयंती पर उन्हें स्मरण किया जाता है, यह प्रश्न और भी प्रासंगिक हो उठता है कि स्वयं को "समाजवादी" कहने वाले वर्तमान नेता और दल, लोहिया के सिद्धांतों व उनकी व्यापक सांस्कृतिक दृष्टि के कितने पास, और कितने दूर हैं।लोहिया की विचारधारा का मर्मडॉ. लोहिया राजनीति को केवल सत्ता या संसाधनों के संकेंद्रण का माध्यम नहीं, सामाजिक सुधार, बहुजन कल्याण और राष्ट्रीय एकता के पथ का साधन मानते थे। 


उन्होंने भाषा, संस्कृति और धर्म के माध्यम से समाज में समरसता और विविधता के उत्सव की आवश्यकता लगातार रेखांकित की। वे शिक्षा, भाषा, आरक्षण और महिला सशक्तिकरण जैसे विषयों पर बेहद स्पष्ट और साहसी विचार रखते थे; पिछड़ों को 60% आरक्षण का नारा इसी साहस की मिसाल है।रामायण मेला: संस्कृति के धागेरामायण मेला की परिकल्पना, जिसका उद्देश्य भारत की विभिन्न भाषाओं, प्रदेशों और संस्कृतियों को रामकथा के चिंतन में जोड़ना था, उनकी गहरी सांस्कृतिक दृष्टि को दर्शाता है। चित्रकूट और अयोध्या जैसे तीर्थस्थलों पर इसकी परंपरा स्थापित करना, भारतीय एकता के लिए रामकथा जैसे साझा सांस्कृतिक सूत्र को सशक्त करना—यही उनकी सांस्कृतिक राजनीति थी।समाजवादी दलों की वर्तमान स्थितिआज के स्वघोषित समाजवादी, जिनपर लोहिया जी के विचारों की विरासत का दावा है, वस्तुतः अनेक मायनों में उनसे दूर जा चुके हैं। 

जातिवाद, परिवारवाद और पूंजीवादी झुकाव ने विचारधारा की जगह अवसरवाद ले ली है। हिंदी की बात करने वाले नेता अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, सामाजिक न्याय की बात करते हुए खुद सत्ता-संपन्न तबकों में सिमट जाते हैं—यह लोहिया के सपनों का समाज नहीं है।सत्ता, संस्कृति और बाज़ारीकरणआज जहां राज्य सरकारें और केंद्र राम के चरित्र को भव्य आयोजनों (दीपोत्सव, रामायण कॉन्क्लेव) के ज़रिये वैश्विक स्तर पर पहुँचा रही हैं, वहीं तथाकथित समाजवादी दलों का झुकाव पारिवारिक, जातिगत और पूंजीवादी गतिविधियों की ओर अधिक दिखाई देता है। लोहिया की वैचारिक विरासत, जिसमें सांस्कृतिक आयोजन सामाजिक समन्वय के माध्यम थे, अब दिखावे, तड़क-भड़क या वोट बैंक तक सीमित हो चुकी है।कितने दूर कितने पास?वैचारिक रूप से: बहुत दूर—लोहिया के विचारों की उपेक्षा, जातिवाद व अवसरवाद की प्रधानता।आयोजनात्मक रूप से: आंशिक रूप से पास—रामायण मेला जैसे आयोजन जीवित, किंतु मूल उद्देश्य से भटकाव।सत्ता और साधन: पूरी तरह दूर—राजनीति को आय व परिवारवाद का साधन।

सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकार: बहुत दूर—सच्चे सामाजिक सुधार व समावेशन की जगह प्रतीकात्मकता या ब्रांडिंग।निष्कर्षडॉ. लोहिया के विचारों और वर्तमान समाजवादियों के व्यवहार के बीच खाई गहरी है। यदि आज लोहिया जी होते, तो जनता और नेतृत्व से प्रामाणिक आत्मनिरीक्षण की मांग करते—हर स्तर पर सत्ता, जाति और पूंजी के कुचक्र से बाहर निकल, सामाजिक समरसता, न्याय एवं बौद्धिक ईमानदारी का पुरज़ोर आग्रह करते।उनकी जयंती पर यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि उनके विचारों को आचरण में उतारने की कोशिश ईमानदारी से हो, न कि केवल उनके नाम पर सत्ता, अवसर और रस्म अदायगी चलती  है

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें