रेडक्रॉस पर “क्रॉस” लगाने वाले: जब सेवा का मंच बन गया स्वार्थ का मंचन!
डॉ. प्रमोद चौधरी के 221 दिनों की कहानी — कर्म, कुकर्म और संस्था की आत्मा पर प्रहार
बस्ती।उत्तरप्रदेश
कभी यह संस्था मानवता का मंदिर मानी जाती थी। रेडक्रॉस सोसायटी — जहां सेवा, समर्पण और करुणा ही पहचान थी। पर आज उसी मंदिर की दीवारों पर स्वार्थ के धब्बे दिख रहे हैं। कारण एक व्यक्ति — डॉ. प्रमोद चौधरी — जिनके 221 दिनों के कार्यकाल ने वर्षों से कमाई प्रतिष्ठा को विवादों की कालिख से ढँक दिया। पूर्व सचिव कुलविंदर सिंह, जिन्होंने 2930 दिन तक रेडक्रॉस को जनसेवा का पर्याय बनाया, अब तुलना का प्रतीक बन चुके हैं। एक ओर वह कालखंड था जब रेडक्रॉस अस्पताल से लेकर राहत शिविरों तक सक्रिय रहती थी, दूसरी ओर अब है वह दौर जब फाइलें तो चलती हैं, पर निष्ठा ठहर जाती है।
सेवा नहीं, स्वार्थ का प्रदर्शन,डॉ. प्रमोद चौधरी का नाम अब संस्था में सेवा से अधिक सेल्फ़ी और शोबाज़ी के लिए जाना जाता है। उन्होंने रेडक्रॉस की आत्मा को “प्रेस रिलीज़” और “पोस्टरबाज़ी” में बदल डाला। कहते हैं, जब नेतृत्व के पास दृष्टि नहीं होती, तो दिशा भटक जाती है — यही हुआ रेडक्रॉस के साथ। 221 दिनों में न कोई बड़ा राहत प्रकल्प आरंभ हुआ, न कोई अस्पताल व्यवस्था सुधरी, पर ‘फोटो सेशन’ और ‘उद्घाटन के पोस्टर’ जरूर बढ़ गए।
कुलविंदर सिंह बनाम प्रमोद चौधरी: यह मात्र तुलना नहीं, मूल्य-संघर्ष है,कुलविंदर सिंह का कार्यकाल संस्था के उत्कर्ष का काल था। कोविड संकट में भी उन्होंने रेडक्रॉस को जनता की सेवा के लिए जीवित रखा। वहीं डॉ. प्रमोद चौधरी के नेतृत्व में वह भावना मुरझा गई।
लोग पूछते हैं —“क्या सेवा का अर्थ अब केवल कुर्सी, कैमरा और कमीशन रह गया है?”
“क्या रेडक्रॉस अब ‘रेड’ (लालची) लोगों के कब्जे में चली गई है?”
संस्था का अपमान, सेवा का अपहरण,रेडक्रॉस के नाम पर दान देने वाले, समाजसेवी और डॉक्टर वर्ग आज निराश हैं। जिन्हें लगा था कि संस्था फिर नई ऊर्जा से खड़ी होगी, उन्हें केवल आरोप, गुटबाज़ी और बयानबाज़ी मिली। डॉ. प्रमोद चौधरी के विरुद्ध उठ रहे सवाल महज़ व्यक्तिगत नहीं हैं — यह उस सोच के विरुद्ध हैं जो संस्थाओं को “अपनी निजी दुकान” बना लेती है।
रेडक्रॉस: जिसे पुनः सेवा का तीर्थ बनाना होगा,आज जरूरत है आत्ममंथन की। रेडक्रॉस को फिर उसी भाव से खड़ा करने की, जैसा भाव कुलविंदर सिंह जैसे सेवाभावी लोगों ने दिखाया था।,रेडक्रॉस का अर्थ “रक्तदान” नहीं, “जीवनदान” है — पर जब नेतृत्व “दान” को “दान-पत्र” में बदल दे, तो संस्था मर जाती है, और उसके साथ समाज का भरोसा भी।
कौटिल्यीय दृष्टि से यह स्पष्ट है—
“जब अधिकारी सेवा के बजाय स्वार्थ साधन करने लगते हैं, तो संस्थाएँ नहीं, संस्कृतियाँ मरती हैं।”
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