बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

शंकर का मन, राम क़ी मर्यादा, कृष्ण क़ी नीति और बुद्ध क़ी करुणा का समन्वय ही सनातन है



यदि कोई पूछे कि सनातन धर्म का चरित्र क्या है? तो उत्तर होगा — उसमें शंकर का विवेक, राम की मर्यादा, कृष्ण की चातुर्यपूर्ण नीति, और बुद्ध की करुणा एक साथ प्रवाहित होती है।

यही समन्वय सनातन का प्राण है — जो विभाजन नहीं करता, विलय करता है; जो बहिष्कार नहीं, अपनत्व का मंत्र देता है।1. शंकर का मस्तिष्क: विवेक और अद्वैत की दृष्टिआदि शंकराचार्य ने जब अद्वैत वेदांत को पुनर्स्थापित किया, तब वे केवल एक दार्शनिक नहीं थे — वे भारत के मस्तिष्क थे। उनका चिंतन यह बताता है कि ब्रह्म एक है, उपासक और उपास्य में विभाजन केवल अज्ञान की उपज है।
शंकर का मस्तिष्क यह सिखाता है कि धर्म बिना ज्ञान के अधूरा है। आज का दुर्भाग्य यह है कि बहुत से तथाकथित “धर्मगुरु” ज्ञान की जगह प्रदर्शन करते हैं — बुद्धि की जगह तुकबंदी और तर्क की जगह व्यापार।

आदि शंकराचार्य ने गीता पर भाष्य करते हुए कहा था — “ज्ञानं एव मोक्षः” — ज्ञान ही मुक्ति है।
उनके जीवन से यह स्पष्ट होता है कि धर्म का पहला दायित्व आत्मा की पहचान है, न की भीड़ बटोरना।आज का धार्मिक परिदृश्य इस ज्ञान की परंपरा से विचलित हो चुका है। यूट्यूब के युग में कथा-वाचन को “कंटेंट मार्केट” बना दिया गया है। लोगों को मोक्ष नहीं, मनोरंजन परोसा जा रहा है। शंकर का मस्तिष्क हमें चेताता है — धर्म का अर्थ है विवेक, न कि नफ़ा। राम की मर्यादा: संतुलन और अनुशासनभगवान राम का जीवन मात्र एक चरित्र नहीं, बल्कि मर्यादा का आदर्श संस्थान है। उनका धर्म व्यक्तिगत न होकर सामाजिक है। उन्होंने स्वयं के सुख से ऊपर “धर्म” को रखा।
राम ने न ‘अधिकार’ मांगा, न ‘लोकप्रियता’ की राजनीति की — उन्होंने ‘कर्तव्य’ निभाया।लेकिन आज के कथावाचक “रामकथा” को भी एक मंचीय प्रदर्शन बना चुके हैं। लाखों रुपए की फीस लेकर वे भक्ति नहीं, मनोरंजन बोलते हैं। जनता तलियां बजाती है, लेकिन आत्मा नहीं हिलती।
राम का धर्म प्रसिद्धि से नहीं, अंतरात्मा के संकल्प से जीवित रहता है। आज के कथित आचार्यों को यह समझना होगा कि जब कथा व्यवसाय बन जाती है तो मर्यादा विपणन-पाठ्यक्रम बन जाती है।राम कहते हैं — “धर्म वही जो समाज को संतुलित करे।” किंतु आज धर्म का उपयोग असंतुलन फैलाने के लिए हो रहा है — “मेरे पंथ, मेरा समुदाय” की सीमाएं खींची जा रही हैं।
मर्यादा का वास्तविक अर्थ यही है — सीमाओं में रहकर अनंत तक पहुंचना। श्रीकृष्ण की नीति: चातुर्य, साहस और राष्ट्रचेतनाश्रीकृष्ण का जीवन “नीति की प्रयोगशाला” है। उन्होंने धर्म को कर्म के कार्यरूप में उतारा। गीता में वे केवल युद्ध की अनुमति नहीं देते, वह नीति का शास्त्र लिखते हैं — “अधर्म के विरुद्ध धर्मसंघर्ष।”उनकी नीति है — सत्य के लिए रणनीति भी उचित है।
आज के धार्मिक संसार में नीति शब्द को “कपट” समझ लिया गया है। परंतु कृष्ण की नीति यह कहती है — कपट अधर्म के लिए है, नीति धर्म की रक्षा के लिए।
उनकी नीति ने धर्म को गतिशील बनाया — यह बताया कि धर्म जड़ नहीं, जागृत है।कृष्ण के युग में अर्जुन भ्रमित था, आज समाज उसी भ्रम में है। धर्म को या तो अंधश्रद्धा में बांध दिया गया है या नकली पाखंडों में खो दिया गया है।

कृष्ण की नीति यदि आज अपनाई जाती, तो धार्मिक संसार व्यापार नहीं, विचार बनता। बुद्ध की करुणा: मानवता का अंतरप्रवाहगौतम बुद्ध ने धर्म को सरल और मानवीय रूप दिया। उन्होंने कहा — “धम्म वह है जो दुख को घटाए।” करुणा बिना धर्म अधूरा है। बुद्ध की करुणा यह सिखाती है कि किसी का उद्धार करने से पहले उसके दुख को समझो।आज धर्मिक मंचों पर करुणा का उदय नहीं, प्रतिस्पर्धा का उन्माद है।बुद्ध की करुणा जहां देखभाल का प्रतीक थी, आज का धर्म उसे भावुकता मानने लगा है।
धर्म का व्यापारिक रूप समाज में करुणा की जगह ‘कमाई’ का धर्म फैला रहा है।
कथावाचक लाखों की भीड़ जगाते हैं, किंतु किसी अनाथ के आंसू पोंछने का भाव उनमें नहीं जागता।

बुद्ध की करुणा हमें याद दिलाती है कि धर्म का मूल्य लोगों के आँसुओं को सुखाने में है, न कि तिलक की ऊंचाई में। आज के धर्माचार्य और कथा-वाचक: स्वार्थ की परतेंआधुनिक भारत का सबसे बड़ा विरोधाभास यही है कि जहां एक ओर वेदांत और गीता की भूमि है, वहीं दूसरी ओर धर्म आज “ब्रांड” बन चुका है।कथा-वाचन के मंचों पर मंच-सजावट का अभिनय ज्यादा है, तत्वज्ञान का विमर्श कम।संत के चोले में कंपनी चलाते प्रवचनकार बढ़ रहे हैं जो भक्तों की आस्था को निवेश बना चुके हैं।उनका उद्देश लोकसेवा नहीं, लोक-लुभावनता है।ये कथावाचक मंदिर की चौखट से ज्यादा सोशल मीडिया के मंच पर सक्रिय हैं।
उनका उद्देश्य सनातन का विस्तार नहीं, अपनी “फैन फॉलोइंग” बढ़ाना है। जब धर्म कमाई का माध्यम बन जाए तो अध्यात्म की आत्मा सूख जाती है।सनातन धर्म कभी “धंधा” नहीं था। यह जीवन के भीतर आत्मअनुशासन का अभ्यास था। आज का समय पुकार रहा है — धर्म की नोटिकी (monetization) बंद हो।
धर्म का मूल्य रुपए में नहीं, विचार में गिना जाए।6. समावेश ही सनातन हैशंकर ने बुद्ध को नकारा नहीं, कृष्ण ने राम को नहीं तोड़ा, और बुद्ध ने शंकर जैसे विचार को नहीं ठुकराया।
यही सनातन का सर्वोच्च रहस्य है — असहमति में भी समरसता।सनातन धर्म में मतभेद नहीं, मतविविधता है। वेदांत से लेकर भक्ति तक, श्रमण से लेकर तंत्र तक — सब इस चेतना की शाखाएँ हैं।
जो धर्म दूसरों को अस्वीकार कर दे, वह सीमित है; जो सबको स्वीकार कर ले, वही सनातन है।जब हम कहते हैं — “शंक यह विषय सनातन धर्म की आत्मा और उसके वास्तविक, सर्व-समावेशी स्वरूप को पुनः समझाने के लिए अत्यंत गूढ़ और प्रासंगिक है। आपका संकेत “शंकर का मस्तिष्क, राम की मर्यादा, श्रीकृष्ण की नीति और बुद्ध की करुणा” — वास्तव में चार दिशाओं से पूर्ण एक विश्व मानव जीवन-दर्शन की रचना करता है। नीचे 3000 शब्दों का सशक्त और तर्कपूर्ण लेख प्रस्तुत है, जिसमें आज के कथित धर्माचार्यों और कथा-वाचकों की स्वार्थपरक प्रवृत्तियों पर प्रामाणिक आलोचना भी सम्मिलित है।शंकर का मस्तिष्क, राम की मर्यादा, श्रीकृष्ण की नीति और बुद्ध की करुणा — सनातन का समावेश ही सनातन हैप्रस्तावना: सनातन धर्म का अनंत मार्गभारत की आध्यात्मिक भूमि पर सनातन धर्म कोई संप्रदाय नहीं, बल्कि शाश्वत चेतना की वह धारा है जो सत्य, मर्यादा, नीति और करुणा — इन चार स्तंभों पर टिकी है।
ज्ञान, अनुशासन, नीति और करुणा। ये चारों जब एक साथ जीए जाते हैं, तब जीवन धर्म बनता है, और धर्म जनसेवा बन जाता है। धर्म की पुनर्स्थापना: आज की आवश्यकताहमें धर्म की व्याख्या नए शब्दों में चाहिए, लेकिन उसकी आत्मा वही रहनी चाहिए जो वैदिक काल से चली आ रही है। धर्म का अर्थ मंदिर में जाकर सिर झुकाना नहीं — यह हर कर्म में सत्य, न्याय और दया का पालन है।धार्मिक शिक्षा को शास्त्र और सेवा दोनों से जोड़ा जाए।मीडिया प्रोत्साहन केवल उन संतों को मिले जो समाज में स्वास्थ्य, शिक्षा और सदाचार का कार्य करते हैं।धार्मिक धन का पारदर्शी उपयोग सुनिश्चित किया जाए — मंदिरों व आश्रमों की आय समाज के कल्याण में वापस लौटे।कथावाचक पर नियंत्रण हो — धर्म का व्यवसाय करने वालों पर जन-जागरण हो। निष्कर्ष: सनातन की पुनर्ध्वनि सनातन धर्म का सार यही है — वह “सबका है, सबमें है, सबके लिए है।”
वह विरोध नहीं, संयोजन करता है।वह कहता है — “विवेक बुद्धि से देखो, मर्यादा से जीओ, नीति से चलो, करुणा से बांटो।”जब तक शंकर का मस्तिष्क, राम की मर्यादा, कृष्ण की नीति और बुद्ध की करुणा हमारे जीवन में पुनर्स्थापित नहीं होती, तब तक धर्म केवल मुखौटा रहेगा।अब समय है, कथा के मंचों से अधिक मन के मंचों पर धर्म को पुनर्स्थापित करने का।
सनातन का अर्थ है — सर्वसमावेशी चेतना।अतः यह उद्घोष करना ही आज का धर्म है —
“धर्म की नोटिकी बंद करो, सेवा की संस्कृति प्रारंभ करो।” 

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