मंगलवार, 7 अक्टूबर 2025

कोलेजीयम अघोषित राजशही, पर जूता उछालना दंडनीय भी, निंदनीय भी!!



 सुप्रीम कोर्ट और जूता, कोलेजीयम स्वाहा


छवि, न्यूज 18

कभी जूता सत्ता का प्रतीक था, कभी विरोध का। कभी वह तानाशाह की छाती पर पड़ा, कभी न्याय की डेस्क के नीचे सरक गया। आज वही जूता भारतीय लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ के सामने खड़ा है — हाथ जोड़कर नहीं, बल्कि सवाल बनकर। और सवाल यह है कि जब कोलेजीयम स्वयं ही न्यायाधीश चुनता है, तो जनता किससे न्याय मांगे?गवई  जी बताते हैं अनुसूचित से आते हैं, अभी तो राजनीति भी होंगी, एक दूसरे को देख लेने की बात भी आएगी, इसबीच नयायमूर्ति जी ने मूर्ति बन बहुत बड़ा संदेश देदिया हैं, प्रश्न भी, पर अनुत्रित?

सुप्रीम कोर्ट भारत की अंतिम आशा मानी जाती थी। पर अब यह आशा, अपेक्षा में और अपेक्षा, अपारदर्शिता में बदल चुकी है। कोलेजीयम नाम की एक अघोषित राजशाही है — जहाँ निर्णय जनता के लिए होते हैं, पर जनता की भागीदारी शून्य होती है। न्यायमूर्ति खुद को नियुक्त करते हैं, खुद की समीक्षा करते हैं, और फिर स्वयं ही “लोकतंत्र के रक्षक” कहलाते हैं। यह वैसा ही है जैसे कोई ब्राह्मण स्वयं यज्ञ करे, स्वयं आहुति दे, और अंत में कहे — “स्वाहा!”

कोलेजीयम की पारदर्शिता उसी तरह की है जैसे धुंध में आईना। बाहर से न्याय का वस्त्र, भीतर आत्मसंतुष्टि का तंत्र। जनता को दिखाया जाता है “संविधान की आत्मा”, पर असल में यह आत्मा अब क्लर्कों और कोलेजीयमों के बीच खो चुकी है।


आज सुप्रीम कोर्ट पर प्रश्न उठाना पाप माना जाता है। पर कौटिल्य का भारत पूछता है —
“क्या न्यायिक पवित्रता आलोचना से ऊपर है?”“क्या संविधान में न्यायालय को ईश्वर का दर्जा दिया गया था — या जनता के सेवक का?” सच्चाई यह है कि न्यायपालिका अब केवल व्यवस्था का दर्पण नहीं रही, वह स्वयं एक व्यवस्था बन गई है। वह दूसरों को संविधान का पाठ पढ़ाती है, पर अपने भीतर किसी अनुच्छेद को लागू नहीं करती। कोलेजीयम में भाई-भतीजावाद, लॉबिंग, और गुटबाज़ी की फुसफुसाहटें अब राज़ नहीं रहीं; वे अब न्यायिक गलियारों की दीवारों पर खुदे हुए सत्य हैं।

मीडिया, जो कल तक संसद पर प्रहार करता था, आज न्यायपालिका के समक्ष मूक है। शायद इसलिए कि उसके मालिकों को अगली सुनवाई की तारीख़ चाहिए, न कि सच्चाई। राजनीति भी अब चुप है — क्योंकि कोलेजीयम के मंदिर में उसका भी प्रसाद सुरक्षित है। सत्ता और न्याय, दोनों ने एक दूसरे की पीठ पर संविधान का बोझ डाल दिया है।
अब जनता न्याय की मूर्ति के चरणों में नहीं, उसके दरवाज़े के बाहर बैठी है — तारीख़ पर तारीख़ के प्रतिशोध में।

और इसी बीच, एक सामान्य नागरिक किसी अदालत के बाहर अपनी फटी चप्पल उठाकर कहता है — “मेरे पास यही न्याय का प्रतीक बचा है।”

वह जूता अब केवल जूता नहीं, जनता की मौन याचिका बन चुका है। जिस न्याय ने कभी अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी, वही आज खुद ‘अस्पृश्य आलोचना’ का कवच ओढ़ चुका है। न्यायालय यदि प्रश्न से डरने लगे, तो वह मठ बन जाता है; और जब मठ सत्ता से मिल जाए, तो राष्ट्र मूर्छित हो जाता है।

भारत के कोने-कोने में बैठा नागरिक यह देख रहा है कि कानून का पहिया अब नागरिक के हाथ से निकलकर “विशेषाधिकार वर्ग” की अंगुलियों में है।
न्याय की गंध अब पुस्तकालयों में सड़ रही है, और संविधान का पृष्ठ अब बंद कमरों में सिग्नेचर पेपर बन गया है।

कोलेजीयम व्यवस्था ने न्याय को चयन की प्रक्रिया से नहीं, जन-संपर्क से अलग कर दिया है। और यही दूरी लोकतंत्र की असली दरार है। अगर संसद जनता की आवाज़ है और मीडिया उसका मुँह, तो न्यायपालिका उसका विवेक है — पर जब विवेक स्वयं अहंकार में बदल जाए, तब राष्ट्र को जगाने के लिए किसी जूते की जरूरत पड़ती है।

हाँ, यही “जूता” अब प्रतीक है — उस आम आदमी का, जिसे अदालत में बोलने नहीं दिया गया, जिसे तारीख़ों ने ठगा, और जिसे फैसलों ने अनदेखा किया। वह जूता अब भी दरवाज़े पर पड़ा है, पर उसकी गूँज भीतर तक जा रही हैं.


 

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