RSS से ही प्रश्न क्यों उठते हैं?
(कौटिल्य का भारत – सम्पादकीय लेख)
आज संघ ज़ब अपना शताब्दी वर्ष मना रहा, ऐसे समय समाज के प्रश्नों का जीवंत उत्तर है संघ!
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर एक विचित्र परंपरा बन चुकी है — भारत में कुछ भी अच्छा हो या बुरा, प्रश्न सबसे पहले RSS से ही पूछा जाता है। मानो यह संगठन केवल शाखाएँ ही नहीं लगाता, बल्कि भारत के हर राजनीतिक और बौद्धिक तूफ़ान का वज्र-आकर्षक भी है। सवाल उठता है — आखिर RSS से ही प्रश्न क्यों?
संघ से प्रश्न इसलिए हैं क्योंकि वह भारत की जड़ को छूता है, न कि पत्तियों को। अन्य संगठन सत्ता बदलते हैं, RSS चेतना बदलता है। और चेतना में परिवर्तन सदैव असुविधाजनक होता है। 1925 में जब डॉ. केशव बलिराव हेडगेवार ने नागपुर में संघ की नींव रखी थी, तब यह कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं था; यह एक सांस्कृतिक क्रांति थी — भारत को उसकी भूल चुकी आत्मा का स्मरण कराने का प्रयास। वही स्मरण आज तक पश्चिमी मानसिकता और वामपंथी चिंतन को बेचैन करता है।
RSS से प्रश्न इसलिए हैं क्योंकि यह “भारत” को “इंडिया” में बदलने वालों की आँख की किरकिरी है। संघ यह कहता है कि हमारी राष्ट्रीयता न तो किसी अंग्रेजी संविधान की देन है, न किसी सीमांकन की। वह कहता है — हम राष्ट्र हैं क्योंकि हमारी संस्कृति राष्ट्र है। यही बात औपनिवेशिक मानसिकता को नागवार गुजरती है। उन्हें सुविधा होती है उस भारत से, जो केवल भूगोल है; पर RSS उस भारत की बात करता है जो पुराणों, वेदों और शौर्य की परंपरा है।
संघ का प्रश्न इसलिए भी है क्योंकि उसने समाज की सबसे उपेक्षित जड़ों में शक्ति फूँकी। जहाँ अन्य दलों ने जाति और वर्ग के आधार पर विभाजन फैलाया, वहीं संघ ने “हम सब हिन्दू हैं” कहकर सांस्कृतिक एकता की भूमि तैयार की। जब समाज संगठित होता है, तब राजनीति का समीकरण बिगड़ता है। और राजनीति जब अस्थिर होती है, तब प्रश्न पूछे जाते हैं — उसी संघ से, जो जनता के हृदय में स्थिर है।
RSS का प्रभाव किसी सत्ता से नहीं, संस्कार से चलता है। उसकी शाखाओं में कोई तख्ता पलट की योजना नहीं बनती, वहाँ भारत माता की आराधना होती है। प्रचारक किसी दल के कर्मचारी नहीं, राष्ट्र के साधक होते हैं। वे वेतन नहीं लेते, व्रत निभाते हैं। आज के उपभोक्तावादी युग में ऐसा अनुशासन स्वयं में चमत्कार है। शायद यही चमत्कार ही लोगों को डराता है — कि बिना पद, बिना प्रचार, बिना पैसे के भी कोई संगठन कैसे इतना सशक्त हो सकता है?
संघ से प्रश्न इसलिए भी हैं क्योंकि वह भारत की दिशा पर प्रश्नचिह्न लगाने वालों के उत्तर बन चुका है। हर बार जब कोई विदेशी संस्था “हिन्दू राष्ट्र” शब्द से चौंकती है, तो उसे यह समझ नहीं आता कि हिन्दू यहाँ कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवनशैली है। RSS उसी जीवनशैली की पुनर्स्थापना है — जहाँ विविधता में एकता कोई नारा नहीं, अनुभव है।
और सबसे बड़ा कारण यह है कि RSS आलोचना से भागता नहीं, उसे आत्ममंथन का अवसर मानता है। इसलिए जितना प्रश्न होता है, उतना ही वह और सशक्त होकर उभरता है। कोई भी संस्था जो समाज के केंद्र में विचार रखती है, वह हमेशा विवादों के घेरे में रहती है। क्योंकि जहाँ प्रश्न रुक जाते हैं, वहाँ विचार मर जाते हैं — और RSS अभी जीवित ही नहीं, गतिशील भी है।
इसलिए जो लोग पूछते हैं — “RSS से ही प्रश्न क्यों?” — वे वास्तव में भारत से प्रश्न पूछ रहे होते हैं। संघ भारत की आत्मा का वह प्रतिबिंब है, जिसे दबाया जा सकता है पर मिटाया नहीं।
संघ से प्रश्न इसलिए उठते हैं —
क्योंकि वह उत्तर की प्रक्रिया है,
क्योंकि वह भारत की स्मृति है,
और क्योंकि वह आज भी कहता है — “हम संगठन नहीं, संस्कार हैं।”
संघ से प्रश्न इसलिए हैं क्योंकि वह भारत की जड़ को छूता है, न कि पत्तियों को। अन्य संगठन सत्ता बदलते हैं, RSS चेतना बदलता है। और चेतना में परिवर्तन सदैव असुविधाजनक होता है। 1925 में जब डॉ. केशव बलिराव हेडगेवार ने नागपुर में संघ की नींव रखी थी, तब यह कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं था; यह एक सांस्कृतिक क्रांति थी — भारत को उसकी भूल चुकी आत्मा का स्मरण कराने का प्रयास। वही स्मरण आज तक पश्चिमी मानसिकता और वामपंथी चिंतन को बेचैन करता है।
RSS से प्रश्न इसलिए हैं क्योंकि यह “भारत” को “इंडिया” में बदलने वालों की आँख की किरकिरी है। संघ यह कहता है कि हमारी राष्ट्रीयता न तो किसी अंग्रेजी संविधान की देन है, न किसी सीमांकन की। वह कहता है — हम राष्ट्र हैं क्योंकि हमारी संस्कृति राष्ट्र है। यही बात औपनिवेशिक मानसिकता को नागवार गुजरती है। उन्हें सुविधा होती है उस भारत से, जो केवल भूगोल है; पर RSS उस भारत की बात करता है जो पुराणों, वेदों और शौर्य की परंपरा है।
संघ का प्रश्न इसलिए भी है क्योंकि उसने समाज की सबसे उपेक्षित जड़ों में शक्ति फूँकी। जहाँ अन्य दलों ने जाति और वर्ग के आधार पर विभाजन फैलाया, वहीं संघ ने “हम सब हिन्दू हैं” कहकर सांस्कृतिक एकता की भूमि तैयार की। जब समाज संगठित होता है, तब राजनीति का समीकरण बिगड़ता है। और राजनीति जब अस्थिर होती है, तब प्रश्न पूछे जाते हैं — उसी संघ से, जो जनता के हृदय में स्थिर है।
RSS का प्रभाव किसी सत्ता से नहीं, संस्कार से चलता है। उसकी शाखाओं में कोई तख्ता पलट की योजना नहीं बनती, वहाँ भारत माता की आराधना होती है। प्रचारक किसी दल के कर्मचारी नहीं, राष्ट्र के साधक होते हैं। वे वेतन नहीं लेते, व्रत निभाते हैं। आज के उपभोक्तावादी युग में ऐसा अनुशासन स्वयं में चमत्कार है। शायद यही चमत्कार ही लोगों को डराता है — कि बिना पद, बिना प्रचार, बिना पैसे के भी कोई संगठन कैसे इतना सशक्त हो सकता है?
संघ से प्रश्न इसलिए भी हैं क्योंकि वह भारत की दिशा पर प्रश्नचिह्न लगाने वालों के उत्तर बन चुका है। हर बार जब कोई विदेशी संस्था “हिन्दू राष्ट्र” शब्द से चौंकती है, तो उसे यह समझ नहीं आता कि हिन्दू यहाँ कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवनशैली है। RSS उसी जीवनशैली की पुनर्स्थापना है — जहाँ विविधता में एकता कोई नारा नहीं, अनुभव है।
और सबसे बड़ा कारण यह है कि RSS आलोचना से भागता नहीं, उसे आत्ममंथन का अवसर मानता है। इसलिए जितना प्रश्न होता है, उतना ही वह और सशक्त होकर उभरता है। कोई भी संस्था जो समाज के केंद्र में विचार रखती है, वह हमेशा विवादों के घेरे में रहती है। क्योंकि जहाँ प्रश्न रुक जाते हैं, वहाँ विचार मर जाते हैं — और RSS अभी जीवित ही नहीं, गतिशील भी है।
इसलिए जो लोग पूछते हैं — “RSS से ही प्रश्न क्यों?” — वे वास्तव में भारत से प्रश्न पूछ रहे होते हैं। संघ भारत की आत्मा का वह प्रतिबिंब है, जिसे दबाया जा सकता है पर मिटाया नहीं।
संघ से प्रश्न इसलिए उठते हैं —
क्योंकि वह उत्तर की प्रक्रिया है,
क्योंकि वह भारत की स्मृति है,
और क्योंकि वह आज भी कहता है — “हम संगठन नहीं, संस्कार हैं।”

Good job sudrist narayan
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