न्याय का का बाजार, या नोटों से फैसला
दिल्ली के दो जजों द्वारा 6 करोड़ की धोखाधड़ी के आरोपियों को नियम तोड़कर बेल देने पर सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा और दोनों को ट्रेनिंग पर भेज दिया गया। सवाल यह है कि क्या इतनी गंभीर चूक का इलाज केवल "ट्रेनिंग" है?
यह कोई मामूली मामला नहीं था। हाई कोर्ट ने पहले ही आरोपियों की धोखाधड़ी पर कठोर टिप्पणी की थी। इसके बावजूद निचली अदालत ने सबूतों की अनदेखी कर बेल थमा दी। यह न्यायपालिका की उसी मानसिकता को उजागर करता है, जहां गरीब छोटे अपराधों के लिए सालों जेल में सड़ते हैं और बड़े ठग आराम से बेल पर घूमते हैं।
इतिहास गवाह है—2G घोटाला, चारा घोटाला और न जाने कितने बड़े केसों में बेल का वरदान हमेशा ताकतवरों के हिस्से आया। सवाल है: क्या कानून किताबों में गरीब के लिए और बेल के रूप में अमीर के लिए अलग-अलग है?
सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस की चूक पर भी फटकार लगाई, लेकिन असली चिंता अदालतों की है। क्योंकि अगर न्याय के मंदिर में ही ढिलाई हो तो जनता भरोसा कहाँ करे?
न्यायपालिका को आत्ममंथन करना होगा—क्या वह जनता की आशा है या VIP अपराधियों का आश्रय? वरना आने वाली पीढ़ियाँ अदालतों को "न्याय का मंदिर" नहीं, बल्कि “बेल का बाज़ार” कहेंगी।

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