शनिवार, 27 सितंबर 2025

आदि शंकर से विवेकानंद और दीनदयाल तक :सनातन अखंड धारा और आधुनिक भारत की वैचारिक लड़ाई!!!

 

सनातन ही भारत की आत्मा: शंकराचार्य से विवेकानन्द और दीनदयाल तक चिंतन का अखंड प्रवाह!

राजेंद्र नाथ तिवारी



(एक तुलनात्मक संपादकीय लेख)



प्रस्तावना: क्यों सनातन पर हमला हो रहा है?

आज की दुनिया में “सनातन” केवल एक धार्मिक शब्द नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का नाम है। यही कारण है कि जब-जब भारत उठता है, तब-तब सनातन पर प्रहार होते हैं। एक तरफ़ पश्चिमी सोच है, जो भारत को अपनी भोगवादी दृष्टि से आंकना चाहती है, और दूसरी तरफ़ भारत की जड़ें हैं, जो अद्वैत, वेदान्त और एकात्म मानववाद की चेतना से सींची गई हैं।

इस चेतना के तीन विराट स्तंभ हैं:

1. आदि गुरु शंकराचार्य – जिन्होंने दार्शनिक आधार दिया।


2. स्वामी विवेकानन्द – जिन्होंने आत्मविश्वास का शंखनाद किया।


3. पंडित दीनदयाल उपाध्याय – जिन्होंने आधुनिक राजनीति में सनातन का पुनर्स्थापन किया।




1. शंकराचार्य: सनातन दर्शन के महामिलनकर्ता


आठवीं शताब्दी का भारत विखंडन और भ्रम से ग्रसित था। बौद्ध धर्म और अन्य पंथों के वर्चस्व से सनातन परंपरा कमजोर होती जा रही थी। उसी समय आदि शंकराचार्य ने जन्म लिया और अद्वैत वेदांत का प्रकाश फैलाया।

उन्होंने कहा: ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।

चार मठ स्थापित कर उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम भारत को एक सूत्र में बाँध दिया।

उनके शास्त्रार्थों ने भारत को सांस्कृतिक विखंडन से निकालकर एकता की धुरी पर खड़ा किया।


पत्रकारीय नज़रिया: शंकराचार्य ने उस दौर में वही किया जो आज भारत की कूटनीति कर रही है—विभाजनकारी ताक़तों को शास्त्रार्थ और तर्क से मात देना। उनका संदेश साफ़ था: भारत की आत्मा एक है, उसे बाँटा नहीं जा सकता।




2. स्वामी विवेकानन्द: गुलामी के दौर में आत्मविश्वास का शंखनाद


उन्नीसवीं शताब्दी का भारत अंग्रेज़ों की गुलामी में आत्मविश्वास खो चुका था। पश्चिम ने हमें “असभ्य” और “पिछड़ा” साबित करने का षड्यंत्र रचा। तभी 1893 में शिकागो में स्वामी विवेकानन्द ने मंच संभाला और केवल दो शब्दों से दुनिया की आँखें खोल दीं—“Sisters and Brothers of America।”

विवेकानन्द ने कहा: “प्रत्येक आत्मा दिव्य है।”

उन्होंने “दरिद्र नारायण सेवा” का नारा दिया और धर्म को कर्मयोग से जोड़ा।

उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत का भविष्य पश्चिम की नकल में नहीं, बल्कि अपनी सनातन आत्मा में है।


पत्रकारीय दृष्टि: विवेकानन्द ने पश्चिमी मंच पर सनातन की ऐसी गूंज दी कि पूरी दुनिया में भारत की आध्यात्मिक महाशक्ति का एहसास हुआ। यह वह क्षण था जब भारत ने पहली बार औपनिवेशिक मानसिकता को तोड़ा और दुनिया को बताया—हमारी सभ्यता प्राचीन भी है और प्रासंगिक भी।


3. पंडित दीनदयाल उपाध्याय: राजनीति में सनातन की वापसी


स्वतंत्रता के बाद भारत दो चरमपंथी रास्तों पर खड़ा था—साम्यवाद और पूँजीवाद। दोनों ही विदेशी विचारधाराएँ थीं, जिनमें मनुष्य केवल आर्थिक प्राणी है। ऐसे में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ का दर्शन दिया।

उन्होंने कहा: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समन्वय है।

राजनीति और अर्थनीति का आधार भारतीय संस्कृति और नैतिकता होनी चाहिए।

समाजवाद और पूँजीवाद दोनों को भारत के लिए अनुपयुक्त बताते हुए उन्होंने तीसरा रास्ता दिया।


पत्रकारीय दृष्टि: उपाध्याय ने साफ़ कहा कि भारत को भारतीय मॉडल चाहिए, पश्चिमी चश्मे से नहीं देखा जा सकता। यह बात आज के दौर में और भी प्रासंगिक है जब भारत G20 से लेकर UNSC तक अपनी आवाज़ मजबूती से उठा रहा है।




4. तीनों का साझा सूत्र: सनातन ही भारत की धुरी

तीनों महामानवों के चिंतन में कई समानताएँ हैं:

आध्यात्मिक आधार: शंकराचार्य का अद्वैत, विवेकानन्द का आत्मदर्शन और उपाध्याय का एकात्म मानववाद—तीनों का केंद्र मनुष्य की पूर्णता है।


राष्ट्रीय दृष्टि: तीनों ने भारत की एकता, अखंडता और मौलिक पहचान को सर्वोपरि माना।

विदेशी विचारधाराओं को चुनौती: शंकराचार्य ने बौद्ध वादों को तर्क से परास्त किया, विवेकानन्द ने पश्चिमी भोगवाद को चुनौती दी, और उपाध्याय ने पूँजीवाद-साम्यवाद दोनों का विकल्प दिया।

व्यावहारिक कार्य: तीनों ने केवल विचार नहीं दिए, संस्थाएँ खड़ी कीं—मठ, मिशन, और राजनीतिक संगठन।

5. क्यों आज फिर इनका चिंतन प्रासंगिक है?

आज जब भारत की बढ़ती ताक़त से दुनिया चिंतित है, तब बार-बार सनातन पर हमले हो रहे हैं। कोई कश्मीर के नाम पर सवाल उठाता है, कोई जाति या संस्कृति पर। लेकिन जवाब वही है जो इन तीनों महामानवों ने दिया था—भारत की आत्मा सनातन है, और यही उसकी ताक़त है।

संयुक्त राष्ट्र में सुधार की बहस हो या भारत की स्थायी सदस्यता की मांग, यह वही चेतना है जिसे शंकर, विवेकानन्द और दीनदयाल ने सींचा।

आर्थिक आत्मनिर्भरता की चर्चा हो या संस्कृति की वैश्विक पहचान, इनकी सोच भारत का मार्गदर्शन कर रही है।

6. आक्रमक निष्कर्ष: सनातन न झुका है, न झुकेगा

इतिहास गवाह है:

बौद्ध आक्रांतियों के दौर में शंकराचार्य उठे और सनातन को पुनर्जीवित किया।

औपनिवेशिक गुलामी के दौर में विवेकानन्द ने आत्मविश्वास का शंखनाद किया।

स्वतंत्रता के बाद की वैचारिक गुलामी के दौर में दीनदयाल ने भारतीय राजनीति को दिशा दी।


आज भी जब कुछ शक्तियाँ सनातन को “सड़ा-गला” कहने की हिमाकत करती हैं, तब ज़रूरी है कि हम इन तीनों महामानवों की गूंज को याद करें। सनातन केवल पूजा-पद्धति नहीं—यह भारत की रीढ़ है, इसकी आत्मा है।

 जो सनातन पर चोट करेगा, वह भारत पर चोट करेगा।
और जो भारत पर चोट करेगा, इतिहास उसे कभी माफ़ नहीं करेगा।


शंकराचार्य ने दर्शन दिया, विवेकानन्द ने आत्मा जगाई और दीनदयाल ने राजनीति में उसे ढाला। इन तीनों की चिंतनधारा मिलकर आज के भारत को यह संदेश देती है—भारत का भविष्य पश्चिम की नकल में नहीं, बल्कि सनातन की जड़ों से शक्ति लेकर विश्व का नेतृत्व करने में है।

और यही कारण है कि भारत आज विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर है.


 

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