मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

खुदीराम बोस और वन्दे मातरम (25)

   पंचविंशतिः  श्रृंखला( 25)

खुदीराम बोस और वन्दे मातरम


जब कोई राष्ट्र अपना सर्वोच्च मन्त्र खोज लेता है,तो वह राष्ट्र स्वयं को कभी खो नहीं सकता।और भारत का वह मन्त्र था—वन्दे मातरम्,जिसे जीकर अमर हुए—खुदीराम बोस।”भारत का स्वतंत्रता-सग्राम केवल संघर्षों का इतिहास नहीं,यह उन आत्माओं का स्वर्ण-ग्रंथ हैजन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिएअपने जीवन की सारी साँसें अर्पित कर दीं।इन आत्माओं में एक नाम ऐसा है जो प्रेरणा की तरह दहकता है—खुदीराम बोस।सिर्फ 18 वर्ष की अल्प आयु।परंतु संकल्प—अग्नि के समान।निष्ठा—गंगाजल की तरह निर्मल और र देशभक्ति—हिमालय की तरह अडिग।उन्हें देखकर लगता है,जैसे प्रकृति ने स्वयं किसी तेजस्वी ऋषि को एक बालक का रूप देकर भारत में भेजा हो कि वह सोई हुई राष्ट्र-चेतना को जन्म.

वन्दे मातरम्—वह मन्त्र जिसने किशोर हृदय में क्रांति का बीज फूँक दिया:खुदीराम बोस जब पहली बार “वन्दे मातरम्” सुनते हैं,तो मात्र एक गीत नहीं,बल्कि एक पुकार, एक आह्वान, एक ज्योतिउनकी आत्मा को छू लेती है।“सुजलाम् सुफलाम् मलयजशीतलाम्…”यह पंक्ति उनके हृदय में घर कर जाती है।उनके सामने भारत माता का वह दिव्य रूप उभर आता है—हरीतिमा से आच्छादित,नदी-सरिता से शोभित,और शीतल पवन से प्रसन्न।तभी से उनके भीतर एक भाव जन्म लेता है—

“जिस धरती की वायु भी वरदान है,
उसके लिए जीवन क्या, सौ जीवन भी अर्पित कर दूँ।”

यह प्रेरणा केवल साहित्यिक रस नहीं थी,यह एक तप था,एक अनुष्ठान था,जिसने एक किशोर को महापुरुष बना दिया।

एक किशोर, जिसके पास न शक्ति थी, न साधन—परन्तु एक मन्त्र था:अंग्रेज़ शासन के दमनकारी दिनों में जहाँ बड़े-बड़े नेता भी भयभीत हो जाते थे,वहाँ 15–16 वर्ष का एक बालक एक ही मन्त्र के साथ खड़ा था—“वन्दे मातरम्!”उसके पास न धन था,न कोई राजनीतिक पद,न कोई सशक्त संरक्षक।परंतु उसके भीतर वन्दे मातरम् की ज्वाला थी,और ज्वाला को ढाल की आवश्यकता नहीं होती।खुदीराम बोस के लिए यह गीत आस्था भी थी और आत्मबल भी.

वन्दे मातरम्—अंग्रेज़ों के लिए अपराध पर उनके लिए जीवन-धर्म**सन् 1907–08 में अंग्रेज़ शासन ने आज्ञा जारी की—किसी भी सार्वजनिक स्थल पर वन्दे मातरम् कहना दंडनीय अपराध है।

किंतु दुनिया की कौन-सी शक्ति उस गीत को रोक सकती है
जो माँ के प्रति प्रेम से उत्पन्न हुआ हो? खुदीराम ने विद्यालय में ही विरोध कर दिया—“मैं माँ का नाम लेना नहीं छोड़ सकता।”यह उत्तर किसी बहस का नहीं,बल्कि एक उदीयमान आत्मा के जागरण का संकेत था। क्रांतिपथ—जहाँ डर मिटता है,और जगह लेता है केवल कर्तव्य**अंग्रेज़ों के अत्याचार देखकर खुदीराम के भीतर का राष्ट्र-दीप प्रज्ज्वलित होता गया।विद्यालय की दीवारों पर वन्दे मातरम्” लिखना,गाँवों में पर्चे बाँटना,युवाओं को जागृत करना—ये सब उनके दैनिक कार्य बन गए।वे जानते थे—“संघर्ष तभी जन्म लेता है,जब मन एक पवित्र ध्येय से जुड़ जाता है।”और उनका ध्येय स्पष्ट था—स्वतंत्र भारत।

किंग्सफोर्ड के विरुद्ध प्रतिकार—जहाँ वन्दे मातरम् उनका संकल्प बन गया:क्रूर न्यायाधीश किंग्सफोर्ड केअत्याचारों की चर्चा दूर-दूर तक फैल चुकी थी।युगांतर समूह ने प्रतिकार का निर्णय लिया।योजना बनाते समय तीनों क्रांतिकारी—खुदीराम बोस,प्रफुल्ल चाकी,और उनके मार्गदर्शक—सबने एक साथ यह मन्त्र उच्चारा—“वन्दे मातरम्।”

यही था उनका युद्ध-संकल्प।यही उनका धर्म-वचन।और इस मन्त्र के साथ,खुदीराम मौत की ओर नहीं,बल्कि अमरता की ओर बढ़ चले।

 गिरफ्तारी—पर आँखों में कोई भय नहीं, केवल तेज:जब विस्फोट की घटना के बादखुदीराम को गिरफ्तार किया गया,तो वे थके हुए थे,पैदल कई मील चलते-चलते चूर हो चुके थे।पर उनकी आँखें—वह तो पूर्णिमा के चंद्रमा-सी चमक रही थीं।एक अंग्रेज अधिकारी ने व्यंग्य से पूछा—“नाम क्या है?”खुदीराम मुस्कुराए—“वन्दे मातरम् कहने वाला भारतीय।”इतिहास गवाह है—उस उत्तर ने अधिकारियों का अहंकार हिला दिया,और जनता का मन गौरव से भर दिया।

न्यायालय—जहाँ एक किशोर खड़ा था और पूरी सत्ता काँप रही थी:अदालत में जब उनसे पूछा गया—“क्या तुम्हें अपने कृत्य पर पछतावा है?”तो खुदीराम बोस ने अडिग स्वर में कहा—“पछतावा तो तब होता,यदि मैं मातृभूमि के लिए कुछ न करता।मैंने जो किया,वन्दे मातरम् की प्रेरणा से किया।”उस उत्तर ने अदालत को स्तब्ध कर दिया।इतिहास में यह उन दुर्लभ क्षणों में से एक है जब अपराधी नहीं,बल्कि न्याय स्वयं कठघरे में खड़ा दिखाई देता है।

फाँसी—जहाँ मृत्यु भी पराजित हो गई :13 अगस्त 1908 की सुबह जब उन्हें फाँसी पर ले जाया गया,तो मार्ग भर जनता उमड़ पड़ी।नारे उठे—“खुदीराम बोस अमर रहें!”“वन्दे मातरम्!”उन्होंने फाँसी के तख्ते परएक दिव्य मुस्कान के साथ पाँव रखा।अंतिम क्षण में केवल तीन शब्द निकले—“वन्दे…मातरम्…भारत…माता…की…जय।”फंदा कसा,देह शांत हुई,परंतु राष्ट्र की आत्मा में एक सूर्य उदित हो गया।. खुदीराम—जो शरीर से गए,परन्तु विचार से कालजयी हो गए**खुदीराम बोस ने यह सिद्ध कर दिया—कि देशभक्ति उम्र नहीं देखती।16–17 वर्ष की आयु का युवक भी इतिहास बदल सकता हैयदि उसके हृदय मेंवन्दे मातरम् का तेज हो।उन्होंने यह भी सिखाया—संघर्ष का मार्ग कठिन है,आँधियाँ आएँगी,काँटे चुभेंगे,परंतु जिसका ध्येय मातृभूमि हो उसके लिए पराजय जैसा कुछ नहीं होता।

 वन्दे मातरम्—आज के युवाओं के लिए संदेश:

आज का भारत विकास, अवसर और विज्ञान का भारत है—परन्तु यह सब तभी सार्थक है
जब भीतर राष्ट्र-प्रेम की लौ जलती रहे।वन्देमातरम  हमें याद दिलाता है—कि कोई राष्ट्रbकभी नष्ट नहीं होताज ब तक उसकी युवा पीढ़ी अपने देश, अपनी मिट्टी, अपने इतिहास पर गौरव महसूस करती है।

खुदीराम बोस बताते हैं—“आयु छोटी हो सकती है,पर संकल्प कभी छोटा नहीं होना चाहिए।”

जहाँ खुदीराम की आत्मा आज भी कहती है…जब-जब कोई युवा कठिनाइयों में डगमगाता है,तो खुदीराम बोस की मुस्कुराती, तेजस्वी छवि उसे कहती है—“साहस रखो!जीवन का उद्देश्य केवल जीना नहीं,कुछ ऐसा कर जाना है जिससे भारत माता का माथा ऊँचा हो।”और जब-जब हम धीमे स्वर में भी“वन्दे मातरम्” कहते हैं—तो कहीं दूर मानो खुदीराम की आत्मा हवा में थिरकती हैऔर हमारे भीतर प्रेरणा का दीप जल उठता है।🙏

क्रमशः आगे-26वीं श्रृंखला

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