राजेंद्र नाथ तिवारी -टीम कौटिल्य
सांसदों को कौन बना रहा कुत्ता?
संसद: नौटंकी का स्टेज या लोकतंत्र का मंदिर
भारतीय संसद, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रतीक है, आजकल एक थिएटर हॉल की तरह लगने लगी है। जहां एक ओर संविधान की रक्षा और राष्ट्रहित में बहस होनी चाहिए, वहीं दूसरी ओर प्रतीकात्मक ड्रामा, तंज और हंगामा हावी हो गया है। हाल ही में हुई एक घटना ने इस समस्या को और उजागर कर दिया। 1 दिसंबर 2025 को विंटर सेशन के पहले दिन, कांग्रेस सांसद रेणुका चौधरी ने संसद परिसर में एक घायल स्ट्रे डॉग को गोद लिया और उसके साथ अंदर ले जाकर विवाद खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा, "वे जो काटते हैं, वे अंदर बैठे हैं" – जो स्पष्ट रूप से सत्ताधारी बीजेपी पर व्यंग्य था l
इस बयान ने न केवल सदन में हंगामा मचा दिया, बल्कि सोशल मीडिया पर भी तूफान ला दिया। राहुल गांधी ने भी ट्वीट कर कहा, "पेट्स को बाहर नहीं आने दिया जाता, लेकिन अंदर तो हैं ही।" लेकिन सवाल यह है: क्या यह मानवीय संवेदना का प्रतीक था या महज एक राजनीतिक नौटंकी? देश की जनता, जो अपने कठिन कमाए टैक्स के पैसे से इस संसद को चलाती है, अब थक चुकी है। वे सांसदों को नौटंकी के लिए नहीं, बल्कि नीतिगत निर्णयों के लिए चुनती है। संसद के बाहर तो स्टेज लगाकर कोई भी नाटक कर सकता है – लेकिन अंदर, जहां राष्ट्र के भविष्य का फैसला होता है, वहां ड्रामा की क्याजगह?
यह घटना कोई पहली नहीं है। भारतीय संसद का इतिहास ड्रामा से भरा पड़ा है, लेकिन 2025 में यह चरम पर पहुंच गया लगता है। विपक्ष और सत्ता दोनों ही पक्षों से ऐसे कदम आते रहे हैं, जो बहस को असल मुद्दों से भटका देते हैं। जनता का गुस्सा जायज है: "मेरे पैसे का दुरुपयोग इस हद तक न हो कि प्रधानमंत्री तक को ड्रामा न मिले, डिलीवरी मिले।" अगर सांसद रात में चिंतन नहीं करते, देश और विदेश का अंतर नहीं समझ पाते, तो उन्हें सांसद बने रहने का कोई अधिकार नहीं। यह लेख इसी मुद्दे पर गहराई से चर्चा करता है, जहां हम देखेंगे कि कैसे संसद की गरिमा धूमिल हो रही है और जनता की आकांक्षाएं कुचली जा रही हैं।
संसद में ड्रामा का काला इतिहास: प्रतीकवाद की आड़ में राजनीति-भारतीय संसद की स्थापना 1952 में हुई थी, जब यह लोकतंत्र का सच्चा मंदिर था। पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल जैसे दिग्गजों ने यहां नीतियों पर बहस की, न कि सस्ते तंजों पर। लेकिन धीरे-धीरे, राजनीति का स्वरूप बदल गया। 1990 के दशक से हंगामा, वॉकआउट और प्रतीकात्मक विरोध संसद का हिस्सा बन गए। आज 2025 में, यह ड्रामा एक रोग की तरह फैल गया है। रेणुका चौधरी का डॉग इंसिडेंट इसका ताजा उदाहरण है। उन्होंने एक घायल कुत्ते को संसद में लाकर कहा कि "असली काटने वाले तो अंदर हैं।"बीजेपी सांसदों ने इसे संसद का अपमान बताया, जबकि कांग्रेस ने इसे सिस्टम की उदासीनता के खिलाफ प्रतीक कहा। लेकिन सच्चाई क्या है? सोशल मीडिया पर हजारों पोस्ट्स में लोग इसे 'कुतिया राजनीति' बता रहे हैं। एक यूजर ने लिखा, "कांग्रेस वाले किसी को भी संसद में लेकर आ सकते हैं – कुत्ता हो या बदमाश।" दूसरा बोला, "अब अगर कोई बिल्ली, गाय या सांप लाएगा तो क्या होगा?"
यह अकेली घटना नहीं। 2024 के मॉनसून सेशन में विपक्ष ने 'अंबेडकर की मूर्ति' को लेकर हंगामा किया, जबकि असल मुद्दा कृषि कानूनों का था। बीजेपी ने भी कई बार 'राम मंदिर' या 'आर्टिकल 370' जैसे मुद्दों पर प्रतीकात्मक विजय मनाई, जो बहस को भावनात्मक बना देते हैं। 2025 के विंटर सेशन में, महंगाई, बेरोजगारी और सीमा विवाद जैसे गंभीर विषयों पर चर्चा की बजाय, कुत्ते पर बहस हो रही है। राहुल गांधी ने खुद कहा, "आज कुत्ता ही मुख्य मुद्दा है। बेचारे कुत्ते ने क्या किया?" यह व्यंग्य तो ठीक, लेकिन इससे असल समस्याएं कब सुलझेंगी?
ऐसे ड्रामा का असर गहरा है। संसद के सत्र छोटे होते जा रहे हैं – 2025 में कुल 60 दिनों का सत्र, जिसमें आधा समय हंगामे में बीत गया। लोकसभा स्पीकर ने कई बार चेतावनी दी कि "संसद स्टेज नहीं है।" लेकिन सांसद सुनते कौन हैं? विपक्ष वोट बैंक के लिए अल्पसंख्यक या किसान मुद्दों पर प्रतीक चिन्ह लाता है, सत्ता पक्ष राष्ट्रवाद के नाम पर। नतीजा: विधेयक पास होते हैं बिना बहस के। 2025 में डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल पास हुआ, लेकिन गोपनीयता पर कोई चर्चा नहीं। यह ड्रामा लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है, जहां जनता की आवाज दब जाती है।
टैक्सपेयर्स का खून-पसीना: संसद का खर्च और दुरुपयोग,-देश की जनता का सबसे बड़ा गुस्सा टैक्स के दुरुपयोग पर है। भारत में प्रति वर्ष संसद चलाने का खर्च लगभग 3,000 करोड़ रुपये है – इसमें सांसदों की सैलरी (1.5 लाख/माह), यात्रा भत्ता, स्टाफ और सुविधाएं शामिल हैं। एक साधारण नागरिक, जो 10% आयकर देता है, सोचता है: "मेरे पैसे से सांसद कुत्ते को संसद में घुमाएंगे?" रेणुका चौधरी की घटना में, सुरक्षा स्टाफ, सफाई और मीडिया कवरेज पर अतिरिक्त लाखों रुपये खर्च हुए। अगर सांसद बाहर स्टेज लगाकर नाटक करें, तो संसद का खर्च बचेगा।
टैक्स दुरुपयोग की मिसालें अनगिनत हैं। 2023-24 में, संसद के 33% सत्र हंगामे से खाली रहे, जिससे 500 करोड़ का नुकसान हुआ। 2025 में, विंटर सेशन के पहले ही दिन डॉग विवाद पर 4 घंटे बर्बाद। एक रिपोर्ट के मुताबिक, सांसदों की अनुपस्थिति पर सालाना 200 करोड़ वेस्ट। जनता पूछती है: "जब हमारी सड़कें टूटी हैं, स्कूलों में टीचर नहीं, तो संसद में ड्रामा क्यों?" एक X पोस्ट में यूजर ने लिखा, "रेणुका चौधरी का कुत्ता संसद में आया, लेकिन किसान की आवाज नहीं। टैक्स का पैसा कहां जा रहा?"यह दुरुपयोग न केवल आर्थिक है, बल्कि नैतिक भी। सांसद जनता के प्रतिनिधि हैं, न कि एक्टर्स। अगर वे चिंतन करें – रात में नीतियों पर सोचें – तो डिलीवरी हो सकती है। लेकिन ड्रामा से तो वोट मिलते हैं, काम से नहीं।
सांसदों की मानसिकता: देश-विदेश का अंतर न समझना- सबसे दर्दनाक पहलू सांसदों की मानसिकता है। हमारी टिप्पणी सही कहती है: "सांसद देश और विदेश का अंतर नहीं कर पा रहे।" रेणुका चौधरी का बयान – "कुत्ते काटते नहीं, अंदर वाले काटते हैं" – पाकिस्तान जैसे दुश्मन देश से तुलना करने जैसा लगता है। संसद में विदेश नीति पर बहस होनी चाहिए, न कि कुत्ते पर। 2025 में, भारत-पाक सीमा पर तनाव है, लेकिन सदन में इसका जिक्र कम। इसके बजाय, प्रतीकात्मक विरोध।
एक X पोस्ट में लिखा गया: "कांग्रेस सांसद कुत्ता लेकर आ गईं, लेकिन राष्ट्रपति भवन में बदमाश ले गए थे। अंतर क्या?" यह अंतर न समझना खतरनाक है। अमेरिकी कांग्रेस में बहस सख्त नियमों से होती है – कोई ड्रामा नहीं। ब्रिटेन में प्रोटेस्ट बाहर। लेकिन भारत में, सांसद रात में चिंतन की बजाय सोशल मीडिया पर ट्रेंडिंग बनाते हैं। राहुल गांधी का बयान – "कुत्ता मुख्य टॉपिक है" – मजाक लगता है, लेकिन यह गंभीरता की कमी दिखाता है। अगर सांसद विदेश यात्राओं पर खर्च करते हैं (प्रति सांसद 50 लाख/वर्ष), तो कम से कम अंतर समझें। पाकिस्तान को दुश्मन मानें, कुत्ते को नहीं। ऐसा न होने पर, उन्हें सांसद रहने का हक नहीं। जनता 2029 चुनाव में जवाब देगी।
ड्रामा नहीं, डिलीवरी चाहिए: प्रधानमंत्री की अपेक्षा- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार कहा है: "संसद में डिबेट हो, न कि ड्रामा।" 2025 के बजट में उन्होंने डिलीवरी पर फोकस किया – 5 ट्रिलियन इकोनॉमी, जॉब क्रिएशन। लेकिन विपक्ष का ड्रामा इसे भटका देता है। रेणुका इंसिडेंट में, कांग्रेस ने इसे 'मानवीय' कहा, लेकिन असल में यह ध्यान भटकाने का हथकंडा था। जनता चाहती है: ड्रामा बंद, डिलीवरी शुरू। जैसे 'मेक इन इंडिया' में सफलता मिली, वैसे संसद में भी। अगर सांसद चिंतन करें, तो बेरोजगारी 8% से नीचे आ सकती है। लेकिन नौटंकी से तो वोट बैंक मजबूत होता है, राष्ट्र नहीं।
सुधार की राह – जनता की जिम्मेदारी, संसद को बचाने का समय आ गया है। पहला, सख्त नियम: ड्रामा पर जुर्माना। दूसरा, लाइव डिबेट अनिवार्य। तीसरा, जनता जागरूक हो – वोट सोच-समझकर दें। X पर एक पोस्ट सही कहती है: "संसद स्टेज नहीं, मंदिर है।" अगर सांसद रात में चिंतन करें, देश-विदेश समझें, तो भारत सुपरपावर बनेगा। जनता का संदेश साफ: "नौटंकी बाहर, काम अंदर।" आइए, लोकतंत्र को मजबूत बनाएं।

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