शनिवार, 8 नवंबर 2025

“वर्दी, वसूली और व्यवस्था: जब पुलिस ही कानून की दलाली करने लगे”

 

संपादकीय



“वर्दी, वसूली और व्यवस्था: जब पुलिस ही कानून की दलाली करने लगे”

सहारनपुर का इंस्पेक्टर नरेश शर्मा प्रकरण केवल एक अधिकारी की व्यक्तिगत गिरावट नहीं है; यह पूरे पुलिस तंत्र की संरचनात्मक सड़ांध का प्रतीक है। जिस पुलिस पर कानून की रक्षा का दायित्व है, वही जब कानून को अपनी जेब में रख ले — तो राज्यसत्ता की नैतिकता खतरे में पड़ जाती है।

वर्दी और व्यापारी बुद्धि

एक ओर शासन “जीरो टॉलरेंस” की नीतियों के दावे कर रहा है, वहीं वर्दीधारी अधिकारी करोड़ों की बेनामी संपत्ति खरीद रहे हैं। हाजी इकबाल जैसे माफिया के साथ पुलिस का गठजोड़ यह दिखाता है कि अपराध अब बाहरी नहीं, आंतरिक हो चुका है। जब थाने में तैनात इंस्पेक्टर कानून का भय दिखाकर बैनामा कराता है, तो जनता के लिए “थाना” भय का नहीं, व्यवस्था के पतन का प्रतीक बन जाता है।

सिस्टम का मौन अपराध

नरेश शर्मा का मामला महीनों तक चलता रहा — जमीन खरीदी गई, रजिस्ट्री हुई, भुगतान हुआ, और विभाग को भनक तक नहीं लगी। सवाल यह है कि क्या विभाग की Vigilance शाखा केवल कागजों पर है? क्या किसी पुलिसकर्मी की अचानक संपन्नता पर कोई पूछताछ नहीं होती?
यह “संगठनात्मक मौन” भी अपराध से कम नहीं। जो अधिकारी निगरानी कर सकते थे, वे ही या तो आँख मूँद बैठे थे या किसी लाभ में सहभागी बने हुए थे।

माफिया-सत्ता-पुलिस का त्रिकोणीय गठजोड़

उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में भूमि माफिया और स्थानीय राजनीति का गठजोड़ नया नहीं है। परन्तु जब उसमें वर्दी का आशीर्वाद जुड़ जाता है, तो यह गठजोड़ “सत्ता का समानांतर प्रशासन” बन जाता है। हाजी इकबाल जैसे भूमाफिया वर्षों तक इसलिए सुरक्षित रहे क्योंकि उनके साथ पुलिस-प्रशासनिक रिश्तों की एक अदृश्य दीवार खड़ी थी। नरेश शर्मा उसी दीवार की एक ईंट थे — जो अब गिर गई है, पर दीवार अभी बाकी है।

कानून पर जनता का विश्वास

कानून का अर्थ केवल न्यायालय नहीं होता, बल्कि वह थाने से शुरू होता है। जब जनता थाने को ही “दलालखाना” समझने लगे, तो लोकतंत्र का पहला स्तंभ हिल जाता है।
यह बर्खास्तगी प्रशंसनीय अवश्य है, परंतु यह केवल परिणाम पर प्रहार है, कारण पर नहीं। कारण है — निगरानी का अभाव, पारदर्शिता की कमी और वर्दी के भीतर फैला व्यापारी संस्कार।

आवश्यक है “संपत्ति ऑडिट” और “थाना नैतिकता परीक्षण”

हर अधिकारी की सेवा अवधि में दो बार संपत्ति ऑडिट और वित्तीय व्यवहार की समीक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। थानों में नैतिकता प्रशिक्षण केवल औपचारिक न रह जाए — इसके लिए जनता की निगरानी समितियाँ गठित की जा सकती हैं।
राज्य यदि सचमुच “रामराज्य” की दिशा में बढ़ना चाहता है, तो “पुलिसराज” की इन विकृतियों को पहले नष्ट करना होगा।


इंस्पेक्टर नरेश शर्मा की बर्खास्तगी व्यवस्था की विजय नहीं, बल्कि उसकी आत्मस्वीकृति है — कि अपराध अब बाहरी नहीं, संविधान के भीतर पल रहा है।
जब पुलिस कानून से ऊपर हो जाए, तो न्याय नीचे गिर ही जाता है।

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