दिल्ली केवल शहर नहीं, भारत का हृदय है, उसे सुरक्षित रखना हर भारतीय की ज़िम्मेदारी
दिल्ली का धमाका: आतंक की छाया में जागृत सुरक्षा और समाज की चुप्पी
दिल्ली, जो सदियों से सत्ता का केंद्र रही है, आज फिर एक बार खून से सनी सुर्खियों में है। 11 नवंबर 2025 की वह शाम, जब लाल किला मेट्रो स्टेशन के गेट नंबर-1 के पास एक कार में हुए विस्फोट ने राजधानी को हिला दिया। 11 जिंदगियां लील लीं इस धमाके ने, और 25 से अधिक लोग घायल हो गए। एलएनजेपी अस्पताल के आईसीयू में भर्ती पांच मरीजों की हालत नाजुक है—ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वे इस संकट से उबर जाएं। लेकिन सवाल यह नहीं कि कितने घायल हुए, सवाल यह है कि यह विस्फोट आखिर था क्या? एक साधारण सीएनजी सिलेंडर का फटना, या फिर आतंकवाद का वह काला चेहरा जो 14 साल बाद दिल्ली की धरती पर लौट आया? विस्फोट की तीव्रता ऐसी थी कि इसकी गूंज एक किलोमीटर दूर तक सुनाई दी। कार में सवार लोगों के चीथड़े उड़ गए—किसी की पसलियां बाहर लटक रही थीं, किसी के फेफड़े सड़क पर बिखरे पड़े थे, हाथ टूटकर दूर जा गिरे, और एक शव सर कलम की हालत में था। मानवीय अंग और गाड़ियों के परखच्चे 20-25 मीटर दूर बिखर गए। क्या यह दृश्य किसी फिल्म का सीन था, या वास्तविकता का क्रूर चित्रण?
इस घटना ने न केवल दिल्ली को, बल्कि पूरे देश को हाई अलर्ट पर डाल दिया। मुंबई, उत्तर प्रदेश समेत प्रमुख शहरों और राज्यों में सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए। क्या यह सब आतंकी हमले के बाद की प्रतिक्रिया नहीं है? एनएसजी, फॉरेंसिक टीमों और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की टीमें मौके पर पहुंचीं। यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट) के तहत केस दर्ज हो गया। दिल्ली पुलिस के 200 कर्मियों ने सीसीटीवी फुटेज खंगाले, 13 संदिग्धों से पूछताछ शुरू हो गई। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने गृह सचिव, आईबी प्रमुख और अन्य सुरक्षा एजेंसियों के साथ आपात बैठक बुलाई। आकलन हो रहा है कि यह विस्फोट किस स्तर का था—कम तीव्रता का, या फिर पुलवामा जैसा सुनियोजित नरसंहार। आतंकी हमले की संभावना को खारिज नहीं किया जा रहा, लेकिन अंतिम निष्कर्ष आने तक इंतजार। फिर भी, तमाम संकेत—विस्फोट की ताकत, जगह का चयन, और समय—आतंकवाद की ओर इशारा कर रहे हैं।
यदि यह आतंकी हमला साबित होता है, तो यह 14 लंबे सालों के बाद दिल्ली में आतंक के मंसूबों की कामयाबी होगी। आखिरी बड़ा धमाका 7 सितंबर 2011 को दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर हुआ था, जिसमें 11 लोग मारे गए। इससे पहले सितंबर 2008 में कनॉट प्लेस, करोल बाग, ग्रेटर कैलाश में सिलसिलेवार बम विस्फोटों ने 25 जिंदगियां छीन लीं और 90 से अधिक लोगों को घायल कर दिया। लाल किले का इलाका तो उच्च सुरक्षा वाला है—प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर 15 अगस्त को इसी प्राचीर से देश को संबोधित करते हैं। शाम के समय यहां चांदनी चौक, भगीरथ प्लेस, जैन मंदिर, गौरीशंकर मंदिर के आसपास 2.5-3 लाख लोग उमड़ आते हैं। मेट्रो स्टेशन की भीड़ अलग से। यदि आतंकी निशाना यही भीड़ था, तो यह एक सोचा-समझा हमला था, जिसका उद्देश्य अधिकतम क्षति पहुंचाना था। विस्फोट कार के पिछवाड़े से हुआ, जिससे अगल-बगल की छह कारें, दो ई-रिक्शा और एक ऑटो में आग लग गई। उनमें सवार लोगों की भी मौत हुई, कई झुलसे हुए अस्पताल पहुंचे। क्या इतना व्यापक असर सीएनजी सिलेंडर के फटने से संभव है? विशेषज्ञों का मानना है कि सीएनजी विस्फोट सीमित रहता है, लेकिन यहां तो चेन रिएक्शन जैसा प्रभाव दिखा।
इस बीच, संयोग या साजिश—दिल्ली से महज 25-30 किलोमीटर दूर हरियाणा के फरीदाबाद में फतेहपुर तागा गांव के एक मकान से 2563 किलोग्राम विस्फोटक रसायन और धौज गांव से 360 किलोग्राम, कुल मिलाकर 2900 किलोग्राम के करीब, बरामद हो गए। हैरानी की बात यह कि इस मॉड्यूल में तीन शिक्षित डॉक्टर शामिल थे, जिनके तार पाकिस्तान के जैश-ए-मुहम्मद से जुड़े पाए गए। उनके पास एके-47, 56 राइफलें, बेरेटा पिस्टल, असॉल्ट राइफलें, 20 टाइमर, आठ बड़े और चार छोटे सूटकेस, और 50 बोरे विस्फोटक से भरे मिले। यदि यह रसायन इस्तेमाल होता, तो पुलवामा से भी बड़ा नरसंहार हो सकता था। ये डॉक्टर हिरासत में हैं, और फरीदाबाद कांड की दिल्ली विस्फोट से कोई कड़ी है या नहीं, यह जांच का विषय है। लेकिन यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है: हमारी सुरक्षा व्यवस्था में कहां चूक हुई? स्थानीय पुलिस की शिथिलता क्यों? और वह 'विशेष समाज' जो आतंकवादियों को जन्म देता है, वह कौन है?
स्थानीय पुलिस की शिथिलता इस पूरे कांड का सबसे दर्दनाक पहलू है। फरीदाबाद जैसे औद्योगिक शहर में, जहां प्रवासी मजदूरों की बड़ी आबादी है, खुफिया इनपुट्स की कमी नहीं होती। फिर भी, इतनी बड़ी मात्रा में विस्फोटक जमा हो गए। क्या स्थानीय थानों में निगरानी की कमी थी? सीसीटीवी कवरेज अपर्याप्त था? या फिर भ्रष्टाचार ने आंखें मूंद लीं? दिल्ली पुलिस ने विस्फोट के बाद तुरंत 200 कर्मियों को लगाया, जो प्रशंसनीय है, लेकिन सवाल यह है कि 'बाद' क्यों? 'पहले' क्यों नहीं? खुफिया एजेंसियों के पास जैश-ए-मुहम्मद के डॉक्टरों से जुड़े इनपुट्स थे, लेकिन ग्राउंड लेवल पर कार्रवाई में देरी हुई। हरियाणा पुलिस को फतहपुर तागा और धौज गांवों में संदिग्ध गतिविधियों की शिकायतें मिली थीं—कई महीनों से। फिर भी, छापेमारी में देरी। यह शिथिलता नहीं तो क्या है? एक रिपोर्ट के मुताबिक, स्थानीय पुलिस ने 'समुदायिक संवेदनशीलता' का हवाला देकर कार्रवाई टाली, जो वास्तव में कायरता है। आतंकवाद के खिलाफ सख्ती में 'संवेदनशीलता' का बहाना बनाना, यही तो आतंकियों को बढ़ावा देता है।
घटना के बाद 'जागृत' हुई पुलिस व्यवस्था को देखकर हंसी आती है। विस्फोट के कुछ घंटों में ही हाई अलर्ट, एनएसजी की तैनाती, सीसीटीवी स्कैनिंग—सब कुछ हो गया। लेकिन यह जागृति क्षणिक क्यों है? 2008 के दिल्ली बम धमाकों के बाद भी यही हुआ था—तब अस्थायी चेकपोस्ट, फिर सब सामान्य। 2011 हाईकोर्ट ब्लास्ट के बाद भी वही। क्यों हमारी सुरक्षा प्रणाली रिएक्टिव है, प्रोएक्टिव क्यों नहीं? गृह मंत्री की बैठकें तो होती रहती हैं, लेकिन फॉलो-अप कहां? फरीदाबाद छापेमारी के बाद कितने और मॉड्यूल बेनकाब होंगे? या फिर यह भी एक 'सफल ऑपरेशन' की स्टोरी बनकर रह जाएगा? जागृत पुलिस का मतलब केवल तत्कालीन हलचल नहीं, बल्कि सिस्टमेटिक रिफॉर्म्स होना चाहिए। खुफिया शेयरिंग में सुधार, स्थानीय स्तर पर ट्रेनिंग, और टेक्नोलॉजी का बेहतर इस्तेमाल—ये सब जरूरी हैं। लेकिन अफसोस, हमारी पुलिस अभी भी पुरानी मानसिकता में जी रही है, जहां 'रिपोर्ट फाइलिंग' ही सबसे बड़ा काम है।
अब बात उस 'विशेष समाज' की, जो आतंकवादियों को जन्म देता है। यह कहना कठिन है, लेकिन तथ्य यही कहते हैं कि अधिकांश आतंकी घटनाओं में एक खास धार्मिक पृष्ठभूमि के लोग शामिल पाए जाते हैं। फरीदाबाद के डॉक्टर—शिक्षित, काबिल, लेकिन जैश से जुड़े। क्यों? क्या यह शिक्षा की विफलता है, या फिर वैचारिक जहर का असर? भारत में इस्लामी कट्टरवाद का प्रसार चिंताजनक है। मदरसों में पढ़ाई का स्तर, सोशल मीडिया पर प्रोपगैंडा, और पाकिस्तान से आने वाले फंडिंग—ये सब मिलकर युवाओं को कट्टर बनाते हैं। पुलवामा, उरी, पठानकोट—हर घटना में यही पैटर्न। वह समाज जो खुद को 'पीड़ित' बताकर चुप्पी साध लेता है, जब उसके ही सदस्य आतंक फैलाते हैं। फरीदाबाद के इस मॉड्यूल में डॉक्टरों का होना साबित करता है कि यह गरीबी या अशिक्षा का मुद्दा नहीं, बल्कि सुनियोजित रेडिकलाइजेशन है। समुदाय के बुजुर्ग, उलेमा—वे कहां हैं? क्यों वे खुलकर कट्टरवाद के खिलाफ आवाज नहीं उठाते? एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 20% से अधिक युवा मुस्लिम समुदाय सोशल मीडिया के जरिए रेडिकलाइज्ड हो रहे हैं। यह 'विशेष समाज' आतंकवादियों को न केवल जन्म देता है, बल्कि उन्हें ढाल भी देता है—'इस्लाम खतरे में है' के बहाने।
सोचिए, यदि ये डॉक्टर अस्पतालों में मरीजों का इलाज कर रहे होते, न कि विस्फोटक बना रहे, तो कितनी जिंदगियां बचाई जातीं? शिक्षा का सदुपयोग क्यों नहीं? पाकिस्तान का जैश-ए-मुहम्मद खुलेआम भर्ती करता है—'शहीद बनो, जन्नत पाओ'। और हमारा समाज? वह चुप है। सरकार को सख्त कानून बनाने होंगे—रेडिकलाइजेशन के खिलाफ, फंडिंग पर रोक, और समुदायिक लीडर्स को जवाबदेह बनाना। लेकिन केवल कानून काफी नहीं; डायलॉग जरूरी है। वह समाज जो खुद को मुख्यधारा से जोड़ना चाहता है, उसे आतंक के नाम पर बदनाम होने से बचाना होगा। लेकिन जब तक कट्टर तत्वों को पनाह मिलती रहेगी, तब तक ये घटनाएं रुकेंगी नहीं।
दिल्ली विस्फोट की जांच जारी है। एनआईए और फॉरेंसिक टीमें हर कोण से देख रही हैं—क्या यह आत्मघाती हमला था? कार में कितना विस्फोटक था? संदिग्धों की संख्या बढ़ेगी या नहीं? फरीदाबाद कांड से लिंक साबित होता है या नहीं? ये सवाल अनुत्तरित हैं, लेकिन एक बात साफ है: हमारी सुरक्षा में गंभीर चूकें हैं। स्थानीय पुलिस की शिथिलता ने स्थिति को बिगाड़ा, घटना के बाद की जागृति दिखावटी लगती है, और वह विशेष समाज जो आतंक को पालता है, उसे आईना दिखाना जरूरी है।
इस संकट के बीच, हमें एकजुट होना होगा। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है, 'आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस'। लेकिन टॉलरेंस तो हमारे समाज में ही है—जो संदिग्धों को संरक्षण देता है। फरीदाबाद के डॉक्टरों को सजा मिलेगी, लेकिन सिस्टम को सुधारना होगा। खुफिया नेटवर्क मजबूत करें, सीमापार घुसपैठ पर नजर रखें, और आंतरिक कट्टरवाद को कुचलें। दिल्ली का यह धमाका चेतावनी है—यदि हम नहीं सुधरे, तो अगला लक्ष्य और बड़ा हो सकता है।
ईश्वर उन मृतकों को शांति दे, घायलों को स्वास्थ्य। और हमें—साहस, कि हम इस अंधेरे से लड़ सकें। क्योंकि दिल्ली केवल एक शहर नहीं, यह भारत का दिल है। इसे सुरक्षित रखना हम सबकी जिम्मेदारी है।
राजेंद्र नाथ तिवारी
दिल्ली, जो सदियों से सत्ता का केंद्र रही है, आज फिर एक बार खून से सनी सुर्खियों में है। 11 नवंबर 2025 की वह शाम, जब लाल किला मेट्रो स्टेशन के गेट नंबर-1 के पास एक कार में हुए विस्फोट ने राजधानी को हिला दिया। 11 जिंदगियां लील लीं इस धमाके ने, और 25 से अधिक लोग घायल हो गए। एलएनजेपी अस्पताल के आईसीयू में भर्ती पांच मरीजों की हालत नाजुक है—ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वे इस संकट से उबर जाएं। लेकिन सवाल यह नहीं कि कितने घायल हुए, सवाल यह है कि यह विस्फोट आखिर था क्या? एक साधारण सीएनजी सिलेंडर का फटना, या फिर आतंकवाद का वह काला चेहरा जो 14 साल बाद दिल्ली की धरती पर लौट आया? विस्फोट की तीव्रता ऐसी थी कि इसकी गूंज एक किलोमीटर दूर तक सुनाई दी। कार में सवार लोगों के चीथड़े उड़ गए—किसी की पसलियां बाहर लटक रही थीं, किसी के फेफड़े सड़क पर बिखरे पड़े थे, हाथ टूटकर दूर जा गिरे, और एक शव सर कलम की हालत में था। मानवीय अंग और गाड़ियों के परखच्चे 20-25 मीटर दूर बिखर गए। क्या यह दृश्य किसी फिल्म का सीन था, या वास्तविकता का क्रूर चित्रण?
इस घटना ने न केवल दिल्ली को, बल्कि पूरे देश को हाई अलर्ट पर डाल दिया। मुंबई, उत्तर प्रदेश समेत प्रमुख शहरों और राज्यों में सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए गए। क्या यह सब आतंकी हमले के बाद की प्रतिक्रिया नहीं है? एनएसजी, फॉरेंसिक टीमों और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की टीमें मौके पर पहुंचीं। यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट) के तहत केस दर्ज हो गया। दिल्ली पुलिस के 200 कर्मियों ने सीसीटीवी फुटेज खंगाले, 13 संदिग्धों से पूछताछ शुरू हो गई। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने गृह सचिव, आईबी प्रमुख और अन्य सुरक्षा एजेंसियों के साथ आपात बैठक बुलाई। आकलन हो रहा है कि यह विस्फोट किस स्तर का था—कम तीव्रता का, या फिर पुलवामा जैसा सुनियोजित नरसंहार। आतंकी हमले की संभावना को खारिज नहीं किया जा रहा, लेकिन अंतिम निष्कर्ष आने तक इंतजार। फिर भी, तमाम संकेत—विस्फोट की ताकत, जगह का चयन, और समय—आतंकवाद की ओर इशारा कर रहे हैं।
यदि यह आतंकी हमला साबित होता है, तो यह 14 लंबे सालों के बाद दिल्ली में आतंक के मंसूबों की कामयाबी होगी। आखिरी बड़ा धमाका 7 सितंबर 2011 को दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर हुआ था, जिसमें 11 लोग मारे गए। इससे पहले सितंबर 2008 में कनॉट प्लेस, करोल बाग, ग्रेटर कैलाश में सिलसिलेवार बम विस्फोटों ने 25 जिंदगियां छीन लीं और 90 से अधिक लोगों को घायल कर दिया। लाल किले का इलाका तो उच्च सुरक्षा वाला है—प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर 15 अगस्त को इसी प्राचीर से देश को संबोधित करते हैं। शाम के समय यहां चांदनी चौक, भगीरथ प्लेस, जैन मंदिर, गौरीशंकर मंदिर के आसपास 2.5-3 लाख लोग उमड़ आते हैं। मेट्रो स्टेशन की भीड़ अलग से। यदि आतंकी निशाना यही भीड़ था, तो यह एक सोचा-समझा हमला था, जिसका उद्देश्य अधिकतम क्षति पहुंचाना था। विस्फोट कार के पिछवाड़े से हुआ, जिससे अगल-बगल की छह कारें, दो ई-रिक्शा और एक ऑटो में आग लग गई। उनमें सवार लोगों की भी मौत हुई, कई झुलसे हुए अस्पताल पहुंचे। क्या इतना व्यापक असर सीएनजी सिलेंडर के फटने से संभव है? विशेषज्ञों का मानना है कि सीएनजी विस्फोट सीमित रहता है, लेकिन यहां तो चेन रिएक्शन जैसा प्रभाव दिखा।
इस बीच, संयोग या साजिश—दिल्ली से महज 25-30 किलोमीटर दूर हरियाणा के फरीदाबाद में फतेहपुर तागा गांव के एक मकान से 2563 किलोग्राम विस्फोटक रसायन और धौज गांव से 360 किलोग्राम, कुल मिलाकर 2900 किलोग्राम के करीब, बरामद हो गए। हैरानी की बात यह कि इस मॉड्यूल में तीन शिक्षित डॉक्टर शामिल थे, जिनके तार पाकिस्तान के जैश-ए-मुहम्मद से जुड़े पाए गए। उनके पास एके-47, 56 राइफलें, बेरेटा पिस्टल, असॉल्ट राइफलें, 20 टाइमर, आठ बड़े और चार छोटे सूटकेस, और 50 बोरे विस्फोटक से भरे मिले। यदि यह रसायन इस्तेमाल होता, तो पुलवामा से भी बड़ा नरसंहार हो सकता था। ये डॉक्टर हिरासत में हैं, और फरीदाबाद कांड की दिल्ली विस्फोट से कोई कड़ी है या नहीं, यह जांच का विषय है। लेकिन यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है: हमारी सुरक्षा व्यवस्था में कहां चूक हुई? स्थानीय पुलिस की शिथिलता क्यों? और वह 'विशेष समाज' जो आतंकवादियों को जन्म देता है, वह कौन है?
स्थानीय पुलिस की शिथिलता इस पूरे कांड का सबसे दर्दनाक पहलू है। फरीदाबाद जैसे औद्योगिक शहर में, जहां प्रवासी मजदूरों की बड़ी आबादी है, खुफिया इनपुट्स की कमी नहीं होती। फिर भी, इतनी बड़ी मात्रा में विस्फोटक जमा हो गए। क्या स्थानीय थानों में निगरानी की कमी थी? सीसीटीवी कवरेज अपर्याप्त था? या फिर भ्रष्टाचार ने आंखें मूंद लीं? दिल्ली पुलिस ने विस्फोट के बाद तुरंत 200 कर्मियों को लगाया, जो प्रशंसनीय है, लेकिन सवाल यह है कि 'बाद' क्यों? 'पहले' क्यों नहीं? खुफिया एजेंसियों के पास जैश-ए-मुहम्मद के डॉक्टरों से जुड़े इनपुट्स थे, लेकिन ग्राउंड लेवल पर कार्रवाई में देरी हुई। हरियाणा पुलिस को फतहपुर तागा और धौज गांवों में संदिग्ध गतिविधियों की शिकायतें मिली थीं—कई महीनों से। फिर भी, छापेमारी में देरी। यह शिथिलता नहीं तो क्या है? एक रिपोर्ट के मुताबिक, स्थानीय पुलिस ने 'समुदायिक संवेदनशीलता' का हवाला देकर कार्रवाई टाली, जो वास्तव में कायरता है। आतंकवाद के खिलाफ सख्ती में 'संवेदनशीलता' का बहाना बनाना, यही तो आतंकियों को बढ़ावा देता है।
घटना के बाद 'जागृत' हुई पुलिस व्यवस्था को देखकर हंसी आती है। विस्फोट के कुछ घंटों में ही हाई अलर्ट, एनएसजी की तैनाती, सीसीटीवी स्कैनिंग—सब कुछ हो गया। लेकिन यह जागृति क्षणिक क्यों है? 2008 के दिल्ली बम धमाकों के बाद भी यही हुआ था—तब अस्थायी चेकपोस्ट, फिर सब सामान्य। 2011 हाईकोर्ट ब्लास्ट के बाद भी वही। क्यों हमारी सुरक्षा प्रणाली रिएक्टिव है, प्रोएक्टिव क्यों नहीं? गृह मंत्री की बैठकें तो होती रहती हैं, लेकिन फॉलो-अप कहां? फरीदाबाद छापेमारी के बाद कितने और मॉड्यूल बेनकाब होंगे? या फिर यह भी एक 'सफल ऑपरेशन' की स्टोरी बनकर रह जाएगा? जागृत पुलिस का मतलब केवल तत्कालीन हलचल नहीं, बल्कि सिस्टमेटिक रिफॉर्म्स होना चाहिए। खुफिया शेयरिंग में सुधार, स्थानीय स्तर पर ट्रेनिंग, और टेक्नोलॉजी का बेहतर इस्तेमाल—ये सब जरूरी हैं। लेकिन अफसोस, हमारी पुलिस अभी भी पुरानी मानसिकता में जी रही है, जहां 'रिपोर्ट फाइलिंग' ही सबसे बड़ा काम है।
अब बात उस 'विशेष समाज' की, जो आतंकवादियों को जन्म देता है। यह कहना कठिन है, लेकिन तथ्य यही कहते हैं कि अधिकांश आतंकी घटनाओं में एक खास धार्मिक पृष्ठभूमि के लोग शामिल पाए जाते हैं। फरीदाबाद के डॉक्टर—शिक्षित, काबिल, लेकिन जैश से जुड़े। क्यों? क्या यह शिक्षा की विफलता है, या फिर वैचारिक जहर का असर? भारत में इस्लामी कट्टरवाद का प्रसार चिंताजनक है। मदरसों में पढ़ाई का स्तर, सोशल मीडिया पर प्रोपगैंडा, और पाकिस्तान से आने वाले फंडिंग—ये सब मिलकर युवाओं को कट्टर बनाते हैं। पुलवामा, उरी, पठानकोट—हर घटना में यही पैटर्न। वह समाज जो खुद को 'पीड़ित' बताकर चुप्पी साध लेता है, जब उसके ही सदस्य आतंक फैलाते हैं। फरीदाबाद के इस मॉड्यूल में डॉक्टरों का होना साबित करता है कि यह गरीबी या अशिक्षा का मुद्दा नहीं, बल्कि सुनियोजित रेडिकलाइजेशन है। समुदाय के बुजुर्ग, उलेमा—वे कहां हैं? क्यों वे खुलकर कट्टरवाद के खिलाफ आवाज नहीं उठाते? एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 20% से अधिक युवा मुस्लिम समुदाय सोशल मीडिया के जरिए रेडिकलाइज्ड हो रहे हैं। यह 'विशेष समाज' आतंकवादियों को न केवल जन्म देता है, बल्कि उन्हें ढाल भी देता है—'इस्लाम खतरे में है' के बहाने।
सोचिए, यदि ये डॉक्टर अस्पतालों में मरीजों का इलाज कर रहे होते, न कि विस्फोटक बना रहे, तो कितनी जिंदगियां बचाई जातीं? शिक्षा का सदुपयोग क्यों नहीं? पाकिस्तान का जैश-ए-मुहम्मद खुलेआम भर्ती करता है—'शहीद बनो, जन्नत पाओ'। और हमारा समाज? वह चुप है। सरकार को सख्त कानून बनाने होंगे—रेडिकलाइजेशन के खिलाफ, फंडिंग पर रोक, और समुदायिक लीडर्स को जवाबदेह बनाना। लेकिन केवल कानून काफी नहीं; डायलॉग जरूरी है। वह समाज जो खुद को मुख्यधारा से जोड़ना चाहता है, उसे आतंक के नाम पर बदनाम होने से बचाना होगा। लेकिन जब तक कट्टर तत्वों को पनाह मिलती रहेगी, तब तक ये घटनाएं रुकेंगी नहीं।
दिल्ली विस्फोट की जांच जारी है। एनआईए और फॉरेंसिक टीमें हर कोण से देख रही हैं—क्या यह आत्मघाती हमला था? कार में कितना विस्फोटक था? संदिग्धों की संख्या बढ़ेगी या नहीं? फरीदाबाद कांड से लिंक साबित होता है या नहीं? ये सवाल अनुत्तरित हैं, लेकिन एक बात साफ है: हमारी सुरक्षा में गंभीर चूकें हैं। स्थानीय पुलिस की शिथिलता ने स्थिति को बिगाड़ा, घटना के बाद की जागृति दिखावटी लगती है, और वह विशेष समाज जो आतंक को पालता है, उसे आईना दिखाना जरूरी है।
इस संकट के बीच, हमें एकजुट होना होगा। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है, 'आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस'। लेकिन टॉलरेंस तो हमारे समाज में ही है—जो संदिग्धों को संरक्षण देता है। फरीदाबाद के डॉक्टरों को सजा मिलेगी, लेकिन सिस्टम को सुधारना होगा। खुफिया नेटवर्क मजबूत करें, सीमापार घुसपैठ पर नजर रखें, और आंतरिक कट्टरवाद को कुचलें। दिल्ली का यह धमाका चेतावनी है—यदि हम नहीं सुधरे, तो अगला लक्ष्य और बड़ा हो सकता है।
ईश्वर उन मृतकों को शांति दे, घायलों को स्वास्थ्य। और हमें—साहस, कि हम इस अंधेरे से लड़ सकें। क्योंकि दिल्ली केवल एक शहर नहीं, यह भारत का दिल है। इसे सुरक्षित रखना हम सबकी जिम्मेदारी है।
राजेंद्र नाथ तिवारी

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