वन्देमातरम लेख श्रृंखला – 5
वेद, पुराण, उपनिषद, बंकिम और माता भूमि : पुत्रोऽहम् पृथिव्याः – वन्दे मातरम्
भारत मातरम् भारत के आत्मा की खोज यदि की जाए तो वह किसी एक व्यक्ति, स्थान या काल में सीमित नहीं मिलती। यह आत्मा वेदों की ऋचाओं से लेकर उपनिषदों की मनीषा, पुराणों के आख्यान, बंकिमचंद्र के “वन्दे मातरम्” और
राष्ट्रभाव में निहित “भारत मातरम्” तक एक अखंड प्रवाह के रूप में दिखाई देती है। भारत की यह चेतना केवल शब्दों में नहीं, बल्कि अनुभूति में है — जो कहती है:
“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः” — भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।यह एक वाक्य नहीं, बल्कि समस्त भारतीय सभ्यता का घोष है, जो वेद, पुराण और आधुनिक राष्ट्रवाद के बीच सेतु बनकर आज भी हमारे मन, मस्तिष्क और संस्कारों में गूंजता है।🌿
वेदों में मातृभूमि का भाव : पृथ्वी सूक्त का अमर संदेश,ऋग्वेद के “पृथ्वी सूक्त” में कवि ने सम्पूर्ण पृथ्वी को माता कहकर संबोधित किया है। यह मानव और प्रकृति के बीच मातृत्व संबंध की घोषणा है—
“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।”
यह श्लोक हमें बताता है कि मानव और धरती के बीच का रिश्ता स्वामित्व या उपभोग का नहीं, बल्कि मातृत्व और पुत्रत्व का है। पृथ्वी को माता कहकर हमने केवल उसे पूजनीय नहीं बनाया, बल्कि उसके प्रति उत्तरदायित्व भी स्वीकार किया। वेदों में यह विचार केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत गूढ़ है —पृथ्वी ही जीवन का आधार है, वही अन्न, जल, वायु और ऊर्जा का स्रोत है। इसलिए उसका शोषण नहीं, संरक्षण ही मनुष्य का धर्म है।यह वही विचार है जो बाद में भारतीय राष्ट्रवाद के ताने-बाने में बुना गया। वन्दे मातरम् के “सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्” पंक्ति में वही पृथ्वी सूक्त की गूंज सुनाई देती है। बंकिम ने जो राष्ट्रगीत लिखा, वह दरअसल वेदों की भावना का आधुनिक रूप है।
उपनिषदों की दृष्टि : आत्मा और ब्रह्म का भू-संस्कार,उपनिषद वे ग्रंथ हैं जहाँ से “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” का दर्शन निकलता है। वहाँ मानव को ब्रह्म का अंश कहा गया है — और ब्रह्म स्वयं इस सृष्टि में सर्वव्याप्त है। जब उपनिषद कहते हैं,“ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।”तो वे इस जगत् की हर वस्तु में ईश्वर का निवास बताते हैं। इस भाव से यदि देखा जाए तो हमारी मातृभूमि भी ब्रह्म का ही स्वरूप है —यही कारण है कि भारतवर्ष में भूमि को स्पर्श करने से पहले प्रणाम करने की परंपरा बनी।“भारत माता” का भाव इसीलिए किसी भौगोलिक सीमा का नाम नहीं, बल्कि एक चेतन सत्ता का प्रतीक है।उपनिषदों का यह विचार — अहं ब्रह्मास्मि — जब राष्ट्रचेतना में उतरता है, तो वह कह उठता है —“वन्दे मातरम्” — क्योंकि वही ब्रह्मरूप मातृभूमि हमारे भीतर धड़कती है।
पुराणों की कथा : भूमि, धर्म और राष्ट्र की एकता,पुराण भारतीय समाज की सांस्कृतिक स्मृति हैं। उनमें भारत की भूमि को धर्मभूमि, कर्मभूमि और तपभूमि कहा गया है।विष्णु पुराण में तो स्पष्ट उल्लेख है —“उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥”अर्थात् हिमालय से दक्षिण समुद्र तक फैला यह देश “भारत” कहलाता है और इसके निवासी “भारती संतानें” हैं।पुराणों में यह भावना केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक है।भूमि केवल रहने की जगह नहीं, बल्कि धर्म का पालक क्षेत्र है।इसलिए जब भारतीय किसी तीर्थ में स्नान करता है, तो वह कहता है —“गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती…”— यानी नदियाँ भी माताएँ हैं, पर्वत देवता हैं, वृक्ष पूज्य हैं, और भूमि स्वयं देवी है।इस व्यापक दृष्टिकोण ने भारत को एक सांस्कृतिक राष्ट्र बनाया — जहाँ धर्म, दर्शन और देश एक ही भाव में विलीन हो जाते हैं।
बंकिमचंद्र और आधुनिक राष्ट्रभाव की ज्वाला,उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, तब बंगाल के महामनीषी बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने अपनी कलम से राष्ट्र की आत्मा को फिर से जगाया।उनके उपन्यास “आनंदमठ” में जन्मा गीत “वन्दे मातरम्” केवल साहित्य नहीं था, वह वेदों की आत्मा और उपनिषदों की चेतना का पुनर्जागरण था।“सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्,शस्यश्यामलां मातरम्।”यह पंक्ति उस भारत माता का चित्र खींचती है जो अपने पुत्रों को जीवन, अन्न और आश्रय देती है।बंकिम ने “भारत” को केवल भूमि नहीं, एक जीवंत माँ के रूप में देखा —जिसकी वेदना, शोषण और पुनर्जागरण एक राष्ट्र के इतिहास का प्रतीक बन गया।वन्दे मातरम् में भूमि का स्तवन, प्रकृति की महिमा और मातृत्व की करुणा — तीनों एक साथ मिलकर वह रूप लेते हैं जो हर भारतीय के भीतर आदर, प्रेम और बलिदान की भावना जगाता है।
,वन्देमातरम से राष्ट्र जागरण और वंकिम का आह्वान,“वन्दे मातरम्” ने भारत को केवल राजनीतिक स्वतंत्रता की आकांक्षा नहीं दी, बल्कि आत्मिक स्वतंत्रता का भी संदेश दिया।यह गीत जन-जन के भीतर छिपी उस ऊर्जा को जगाता रहा, जो वेदों की पंक्तियों से चली थी और स्वतंत्रता संग्राम तक आ पहुँची।महात्मा गांधी, अरविंद घोष, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सुभाषचंद्र बोस — सभी ने इसे राष्ट्र का मंत्र कहा।क्योंकि यह गीत कहता था —मातृभूमि केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि आदर्श, आस्था और आत्मा का रूप है।“भारत मातरम्” का नारा इसी भाव से उत्पन्न हुआ।यह ‘राजनीतिक राष्ट्रवाद’ नहीं, बल्कि ‘संस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का उद्घोष था।जहाँ मातृभूमि के प्रति भक्ति, केवल कर्तव्य नहीं बल्कि साधना बन जाती है।
माता भूमि : पुत्रोऽहम् पृथिव्याः — आधुनिक संदर्भ में,आज जब संसार पर्यावरण संकट, युद्ध, प्रदूषण और स्वार्थ से जूझ रहा है, तब “माता भूमि : पुत्रोऽहम् पृथिव्याः” का श्लोक फिर से प्रासंगिक हो उठा है।यह हमें याद दिलाता है कि पृथ्वी हमारी माता है — उसका संरक्षण ही सच्चा राष्ट्रभक्ति है।वन्दे मातरम् केवल झंडा उठाने या नारा लगाने का प्रतीक नहीं, बल्कि उस मातृभूमि के प्रति हमारी जिम्मेदारी का स्मरण है।अगर हम नदियों को प्रदूषित करते हैं, वनों को नष्ट करते हैं, तो हम माता के आंचल को फाड़ रहे हैं।इसलिए बंकिम का “वन्दे मातरम्” और वेद का “माता भूमिः” दोनों हमें पर्यावरण, राष्ट्र और संस्कृति — तीनों की एकात्म दृष्टि सिखाते हैं।
भारत मातरम् : राष्ट्रभक्ति की साधना,भारत माता का स्वरूप केवल देवी का चित्र नहीं, बल्कि भारतीय आत्मा का रूपक है।हिमालय उसका मस्तक है, गंगा-यमुना उसके केशप्रवाह हैं, विंध्याचल उसका मध्यप्रदेश, और समुद्र उसके चरण।जब हम “भारत मातरम्” कहते हैं तो हम संपूर्ण सृष्टि की माता को प्रणाम करते हैं, जो हमें जन्म देती है, पालन करती है और रक्षा का संकल्प मांगती है।“वन्दे मातरम् भारत मातरम्” — यह केवल दो शब्द नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय इतिहास का सार है।यह वेदों की प्रार्थना, उपनिषदों की अनुभूति, पुराणों की कथा, बंकिम की कलम और राष्ट्र के बलिदानों का मिलन है।
वेद से बंकिम तक : अखंड चेतना का सेतु,यदि हम इस विचार-यात्रा को देखें तो एक अद्भुत एकता दिखाई देती है—वेद ने कहा — “पृथ्वी माता है।”उपनिषद ने कहा — “सर्वं खल्विदं ब्रह्म।”पुराण ने कहा — “यह भूमि धर्मभूमि है।”बंकिम ने कहा — “वन्दे मातरम्।”और आधुनिक भारत ने कहा — “भारत मातरम्।”यह पाँचों चरण भारत की आत्मा के पाँच शिखर हैं।इनके बीच कोई विरोध नहीं, केवल विकास है — विचार का विकास, चेतना का विकास और राष्ट्रभाव का विकास।
वन्दे मातरम् – भारत का अनश्वर मन्त्र,“वन्दे मातरम्” वह मंत्र है जो भारतीय आत्मा को बार-बार पुनर्जन्म देता है।यह कोई गीत नहीं, बल्कि प्राणों की पुकार है —वह पुकार जो वेदों से उठी, उपनिषदों से गुजरी, बंकिम के शब्दों में ढली और स्वतंत्रता सेनानियों की आहुति में जीवित रही।जब कोई भारतीय यह कहता है —“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः” — तो वह केवल पर्यावरण का नहीं, बल्कि संस्कृति, करुणा, और कर्तव्य का घोष करता है।और जब वह कहता है —“वन्दे मातरम् भारत मातरम्” — तो वह अपनी आत्मा के आराध्य का जयघोष करता है।भारत की महानता इस निरंतरता में है —जहाँ शब्द बदलते हैं, पर भाव अमर रहता है।वेदों का पृथ्वी-सूक्त, उपनिषदों की आत्मा, पुराणों की कथा, बंकिम की वाणी और जन-जन की भावना — सब मिलकर कहते हैं :“वन्दे मातरम् — भारत मातरम्!🙏🙏
श्रृंखला का पंचम प्रसून,कमश::

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