सोमवार, 3 नवंबर 2025

क्योंकि जब कलम बंधी होती है—तो तस्कर आज़ाद घूमते हैं।

 

 


पंजाब में अखबारों की नाकेबंदी: क्या सच का सफर अब संदिग्ध रहेगा?








रविवार की शांत सुबह पंजाब में एक असहज खामोशी लेकर आई। अखबारों की वैनें पुलिस घेराबंदी में फँसी रहीं और पाठकों की सुबह—सूचना से वंचित। लुधियाना, अमृतसर, पटियाला, होशियारपुर सहित कई जिलों में अखबारों का वितरण या तो घंटों देर से हुआ या बिल्कुल रुका रहा। कारण बताया गया—नशा व हथियारों की तस्करी रोकना।

पर असली सवाल यह है—क्या लोकतंत्र का मौलिक सत्य अब शक के घेरे में है?

क्या सुबह की खबर अब पुलिस अनुमति से पहुँचेगी?क्या शब्दों को भी अब अपराधी माना जाने लगा है?

 शब्दों से डरने की राजनीति,जहाँ एक ओर शासन नशा-मुक्त समाज की दुहाई देता है, वहीं दूसरी ओर अखबारों की वैनें रोककर जो संदेश दिया गया, वह यह कि—“सत्ता को सवाल पसंद नहीं। सूचना की आवाज़ भारी पड़ती है।”यदि नशा रोकना उद्देश्य था तो यह कार्यवाहीदर रात क्यों नहीं?सीमाओं पर क्यों नहीं?संदिग्ध गैंगों पर क्यों नहीं?चुनिंदा समाचार माध्यमों के वाहनों को रोकना,शक को और गहरा कर देता है। जनता के साथ अन्याय, रविवार के दिन अखबार के पन्ने नहीं आए तो,जनता से उनका सोचने का अधिकार छीन लिया गया।पाठक भ्रमितउ,द्योग व्यवस्था बाधितलो,कतंत्र की ऑक्सीजन कमजोरयह सिर्फ वितरण का व्यवधान नहीं—जनमत निर्माण पर प्रहार है।

 क्या सच की तस्करी रोकनी थी?नशा पंजाब का घाव है।पर उसे छुपाने का सबसे आसान तरीका है—उसे उजागर करने वाली आवाज़ को रोक दो।कलम जब आईने का काम करे,तो सत्ता को चेहरा देखने में डर लगता है।और डर—ऐसे ही आदेश देता है,“वैन रोक दो।” लोकतंत्र का सबसे खतरनाक क्षण,जब सत्ता आलोचना को षड्यंत्र समझने लगे,और पुलिस पत्रकारिता को अपराध—तोI समझिए, यह समय सिर्फ खतरे का नहीं,चेतावनी का है।आज अखबारों की वैनों पर रोक है,कल कहीं पन्नों पर अंकुश न लग जाए,और परसों—सच कहना जुर्म घोषित हो जाए। सत्ता से प्रश्न, जनता की ओर से,पंजाब सरकार और पुलिस जवाब दे—क्या यह नाकेबंदी किसी विशेष इनपुट पर आधारित थी? क्या मीडिया संस्थानों को पूर्व सूचना दी गई? क्या सूचना को बाधित करना, सुरक्षा नीति का हिस्सा है?लोकतंत्र में,सिर्फ अपराधी संदिग्ध होते हैं, अखबार नहीं। खबर रोकना किसी शासन की शक्ति नहीं—उसकी कमजोरी का दस्तावेज़ है।पंजाब में जो हुआ, वह कानून का इस्तेमाल करसच की आवाज़ दबाने की कोशिश प्रतीत होता है।यदि सत्ता सच में नशे से लड़ रही है,तो उसे सबसे पहले,नशे के खिलाफ लिखने वालों के रास्ते की नाकेबंदीयाँ हटानी होंगी।

क्योंकि जब कलम बंधी होती है—तो तस्कर आज़ाद घूमते हैं।


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