न्याय की जंजीरें: कैदियों का अनंत इंतजार
टीम कौटिल्य
यह शब्द किसी काल्पनिक कहानी के नहीं, बल्कि भारत की वास्तविकता के हैं। एक ऐसी व्यवस्था जहां न्याय 'देरी से न्याय' नहीं, बल्कि 'न्याय की हत्या' बन चुका है।
2025 में, जब हम डिजिटल क्रांति और आर्थिक उछाल की बातें कर रहे हैं, तब जेलों में सड़ रही लाखों आत्माएं चीख रही हैं: "हमें न्याय दो!" लेकिन व्यवस्था का जवाब? चुप्पी, भीड़भाड़ और लालफीताशाही। यह निबंध इस पर तीखा प्रहार करता है – एक ऐसी व्यवस्था पर जो निर्दोषों को अपराधी बना देती है, गरीबों को सजा सुनाती है और न्याय को मजाक। आंकड़े झूठ नहीं बोलते: भारत की जेलों में कुल 5.06 लाख कैदी हैं, जिनमें से 74.2% (लगभग 3.75 लाख) अंडरट्रायल हैं। ये वे लोग हैं जिनका अपराध साबित ही नहीं हुआ, लेकिन वे सालों से सलाखों के पीछे सड़ रहे हैं। क्या यह लोकतंत्र है या जेलखाना?
सबसे बड़ा अपराध तो इस व्यवस्था का है – न्यायिक देरी। भारत में 5 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं, जो न्यायपालिका को पंगु बना चुके हैं। निचली अदालतों में जजों की कमी, गवाहों का गायब होना, वकीलों की लापरवाही और पुलिस की फर्जी चार्जशीटें – ये सब मिलकर एक ऐसा जाल बुनते हैं जिसमें निर्दोष फंस जाते हैं। कल्पना कीजिए: एक गरीब मजदूर, चोरी के संदेह में गिरफ्तार। अधिकतम सजा 7 साल, लेकिन वह 10 साल जेल में काट चुका है क्योंकि उसका ट्रायल 'अभी चल रहा है'। NCRB की रिपोर्ट बताती है कि 2023 में अंडरट्रायल कैदियों में से कई ने अपराध की अधिकतम सजा से ज्यादा समय काट लिया।
सबसे बड़ा अपराध तो इस व्यवस्था का है – न्यायिक देरी। भारत में 5 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं, जो न्यायपालिका को पंगु बना चुके हैं। निचली अदालतों में जजों की कमी, गवाहों का गायब होना, वकीलों की लापरवाही और पुलिस की फर्जी चार्जशीटें – ये सब मिलकर एक ऐसा जाल बुनते हैं जिसमें निर्दोष फंस जाते हैं। कल्पना कीजिए: एक गरीब मजदूर, चोरी के संदेह में गिरफ्तार। अधिकतम सजा 7 साल, लेकिन वह 10 साल जेल में काट चुका है क्योंकि उसका ट्रायल 'अभी चल रहा है'। NCRB की रिपोर्ट बताती है कि 2023 में अंडरट्रायल कैदियों में से कई ने अपराध की अधिकतम सजा से ज्यादा समय काट लिया।
यह देरी क्यों? क्योंकि जजों की संख्या अपर्याप्त है – लॉ कमीशन की कई रिपोर्टें चीख-चीखकर बता चुकी हैं कि जजों की कमी ही देरी का मूल कारण है। लेकिन सरकार? वह तो नए कानून बनाने में व्यस्त है, जैसे तीन तलाक या फार्म लॉ, लेकिन जेलों की सड़ांध को नजरअंदाज। सुप्रीम कोर्ट के जज ने हाल ही में कहा: "70% से ज्यादा कैदी अंडरट्रायल हैं, और कई को मुफ्त कानूनी सहायता का हक भी नहीं पता।" यह न्याय नहीं, बल्कि एक क्रूर मजाक है।
जेलों की भीड़भाड़ इस व्यवस्था की पोल खोलती है। 2025 में, भारत की जेल क्षमता 4.5 लाख है, लेकिन कैदी 5.8 लाख। आधे से ज्यादा जेलें ओवरक्राउडेड हैं, कुछ में कैदियों की संख्या क्षमता से चार गुना। क्यों? क्योंकि अंडरट्रायल ही तो भीड़ बढ़ा रहे हैं। ये लोग अपराधी नहीं, बल्कि व्यवस्था के शिकार हैं। एक रिपोर्ट कहती है: देरी के कारण जेलें फट रही हैं, और इसका असर न सिर्फ कैदियों पर, बल्कि पूरे समाज पर पड़ रहा है।
जेलों की भीड़भाड़ इस व्यवस्था की पोल खोलती है। 2025 में, भारत की जेल क्षमता 4.5 लाख है, लेकिन कैदी 5.8 लाख। आधे से ज्यादा जेलें ओवरक्राउडेड हैं, कुछ में कैदियों की संख्या क्षमता से चार गुना। क्यों? क्योंकि अंडरट्रायल ही तो भीड़ बढ़ा रहे हैं। ये लोग अपराधी नहीं, बल्कि व्यवस्था के शिकार हैं। एक रिपोर्ट कहती है: देरी के कारण जेलें फट रही हैं, और इसका असर न सिर्फ कैदियों पर, बल्कि पूरे समाज पर पड़ रहा है।
मानवाधिकारों का क्या? संविधान अनुच्छेद 21 जीवन का अधिकार देता है, लेकिन यहां तो जीवन ही जेल में सड़ रहा है। कैदी बीमार पड़ते हैं, मानसिक रूप से टूटते हैं, और कई तो मर जाते हैं। 2023 में ही 150 अंडरट्रायल कैदियों की मौत हुई – ज्यादातर देरी के कारण। क्या ये मौतें 'प्राकृतिक' हैं? नहीं, ये हत्या हैं – न्यायिक हत्या।
जमानत का मुद्दा तो और भी शर्मनाक है। कई कैदी इसलिए जेल में सड़ रहे हैं क्योंकि वे जमानत की सिक्योरिटी नहीं जुटा पाते। सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2025 में आदेश दिया: गरीब अंडरट्रायल के लिए सरकार सिक्योरिटी भरेगी।लेकिन क्या हुआ? ज्यादातर राज्यों में यह योजना कागजों पर ही है। एक रिपोर्ट बताती है: कई राज्यों में सिक्योरिटी 40,000 रुपये से ज्यादा होने पर भी आवेदन रिजेक्ट हो जाते हैं। गरीब मजदूर, किसान या आदिवासी के पास कहां से आएगी यह रकम? बेल ज्यूरिस्प्रूडेंस में सुधार की सख्त जरूरत है – बैल को अधिकार मानना चाहिए, न कि सौगात।
जमानत का मुद्दा तो और भी शर्मनाक है। कई कैदी इसलिए जेल में सड़ रहे हैं क्योंकि वे जमानत की सिक्योरिटी नहीं जुटा पाते। सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2025 में आदेश दिया: गरीब अंडरट्रायल के लिए सरकार सिक्योरिटी भरेगी।लेकिन क्या हुआ? ज्यादातर राज्यों में यह योजना कागजों पर ही है। एक रिपोर्ट बताती है: कई राज्यों में सिक्योरिटी 40,000 रुपये से ज्यादा होने पर भी आवेदन रिजेक्ट हो जाते हैं। गरीब मजदूर, किसान या आदिवासी के पास कहां से आएगी यह रकम? बेल ज्यूरिस्प्रूडेंस में सुधार की सख्त जरूरत है – बैल को अधिकार मानना चाहिए, न कि सौगात।
लेकिन पुलिस और निचली अदालतें? वे तो 'फरार होने का डर' दिखाकर जमानत ठुकरा देती हैं। परिणाम? निर्दोष जेल में, और असली अपराधी बाहर। यह वर्ग-आधारित न्याय है: अमीर जमानत पर बाहर, गरीब सलाखों में।
इस व्यवस्था की जड़ें गहरी हैं – जाति, वर्ग और धर्म की। CJP की रिपोर्ट कहती है: 2023 में 77.9% कैदी अंडरट्रायल थे, और इनमें दलित, आदिवासी और मुसलमानों का अनुपात अ
इस व्यवस्था की जड़ें गहरी हैं – जाति, वर्ग और धर्म की। CJP की रिपोर्ट कहती है: 2023 में 77.9% कैदी अंडरट्रायल थे, और इनमें दलित, आदिवासी और मुसलमानों का अनुपात अ
सामान्य रूप से ज्यादा। क्यों? क्योंकि पुलिस का पूर्वाग्रह, फर्जी केस और राजनीतिक दबाव। एक उदाहरण लीजिए: दिल्ली दंगों के कई आरोपी सालों से जेल में, ट्रायल बिना शुरू हुए। या फिर किसान आंदोलन के कार्यकर्ता – जमानत न मिलने पर वे आज भी बंद हैं। यह न्याय नहीं, बल्कि दमन है। परिवारों का क्या? पत्नियां विधवा-सी हो जाती हैं, बच्चे भूखे मरते हैं। एक अध्ययन कहता है: अंडरट्रायल के परिवारों पर आर्थिक और भावनात्मक बोझ असहनीय है। व्यवस्था गरीबों को सजा दे रही है, अपराध को नहीं।
सुधार? शब्दों में ढेर हैं, लेकिन अमल शून्य। भारत जस्टिस रिपोर्ट 2025 कहती है: अंडरट्रायल आबादी 2030 तक 5.26 लाख हो जाएगी। सुझाव? फास्ट-ट्रैक कोर्ट, डिजिटल ट्रायल, जमानत के लिए नई नीति। लेकिन सरकार NHRC की कांफ्रेंस में सुधारों की बात करती है, फिर भी जेलें खाली नहीं होतीं।सुप्रीम कोर्ट ने देरी के लिए मुआवजा देने का आदेश दिया. लेकिन कितने मामलों में लागू? शून्य। यह तंत्र की नाकामी है – जहां न्याय महंगा और धीमा है, वहां लोकतंत्र का ढोंग है।
अंत में, यह प्रहार उन तथाकथित 'न्यायप्रिय' नेताओं, जजों और अधिकारियों पर है जो कुर्सी पर बैठे आराम करते हैं, जबकि लाखों जीवन सड़ रहे हैं। अगर समय पर सुनवाई होती, तो लाखों आजाद होते। लेकिन नहीं – व्यवस्था का मकसद तो यही है: जेलों को खाली करो, न्याय को तेज करो। वरना, यह चुप्पी विद्रोह बनेगी। न्याय न मिला तो व्यवस्था गिरेगी। जय हिंद? नहीं, जय न्याय!
सुधार? शब्दों में ढेर हैं, लेकिन अमल शून्य। भारत जस्टिस रिपोर्ट 2025 कहती है: अंडरट्रायल आबादी 2030 तक 5.26 लाख हो जाएगी। सुझाव? फास्ट-ट्रैक कोर्ट, डिजिटल ट्रायल, जमानत के लिए नई नीति। लेकिन सरकार NHRC की कांफ्रेंस में सुधारों की बात करती है, फिर भी जेलें खाली नहीं होतीं।सुप्रीम कोर्ट ने देरी के लिए मुआवजा देने का आदेश दिया. लेकिन कितने मामलों में लागू? शून्य। यह तंत्र की नाकामी है – जहां न्याय महंगा और धीमा है, वहां लोकतंत्र का ढोंग है।
अंत में, यह प्रहार उन तथाकथित 'न्यायप्रिय' नेताओं, जजों और अधिकारियों पर है जो कुर्सी पर बैठे आराम करते हैं, जबकि लाखों जीवन सड़ रहे हैं। अगर समय पर सुनवाई होती, तो लाखों आजाद होते। लेकिन नहीं – व्यवस्था का मकसद तो यही है: जेलों को खाली करो, न्याय को तेज करो। वरना, यह चुप्पी विद्रोह बनेगी। न्याय न मिला तो व्यवस्था गिरेगी। जय हिंद? नहीं, जय न्याय!

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