बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

१४वीं बस्ती मैराथन : सफलता की पटकथा और राजनीति की पिच एक सामाजिक, आध्यात्मिक और राजनीतिक मंथन






१४वीं बस्ती मैराथन : सफलता की पटकथा और राजनीति की पिच

 एक सामाजिक, आध्यात्मिक और राजनीतिक मंथन
 
 दौड़ से बढ़कर एक सामूहिक उद्घोष


१४वीं बस्ती मैराथन बीते रविवार को सम्पन्न हुई।यह केवल खेलकूद नहीं थी — यह जनचेतना का उत्सव, सामाजिक एकता का प्रतीक और राजनीतिक ताप का सूचकांक थी। बस्ती ने दिखा दिया कि वह अब “पूर्वांचल की परिधि” नहीं, बल्कि नई भारत-रेखा की केंद्रबिन्दु है।परन्तु इस सफलता की छाया में कई अनकहे प्रश्न हैं —कुछ मंच पर बोले गए शब्दों में, और कुछ मौन चेहरों में।
यही इस आयोजन की आत्मा है — जो दिखा उससे ज़्यादा जो छिपा था, वही असली कथा है।

 आयोजन की चमक — अनुशासन में संस्कृति का आलोक,आयोजन की व्यावस्था, सुरक्षा, और मीडिया-सामंजस्य देखकर यह कहना पड़ेगा कि
भावेश पाण्डेय और उनकी टीम ने आयोजन को संस्था में बदला है।
सुबह का शंखनाद, हरिओम-घोष, और आरती के साथ शुरुआत —
यह दृश्य खेल आयोजन से अधिक एक सांस्कृतिक अनुष्ठान जैसा लगा।
मगर यहीं से प्रश्न उठता है —क्या यह समाज-निर्माण का यज्ञ था, या राजनीतिक पूंजी निवेश का मंच? यह दोहरी परत आयोजन को विशिष्ट बनाती है।


 मंच के वक्तव्य — शब्दों के भीतर की रणनीति,मंच पर नेताओं, अधिकारियों, योगाचार्यों और युवाओं ने बोलते हुए फिटनेस, राष्ट्र, युवा और विकास का मंत्र दिया।पर शब्दों की तह में राजनीतिक संकेतों की चालाकी झलक रही थी।
कहीं “पूर्वांचल नेतृत्व” का जिक्र था, तो कहीं “अगले दशक का भविष्य” की बात।यह मंच केवल “दौड़” नहीं, बल्कि नेतृत्व परीक्षण का प्रयोगशाला भी बन गया। हर तालियों का आंकड़ा, हर कैमरे की दिशा —
सब किसी न किसी राजनीतिक रडार पर दर्ज थी।

 “यह केवल दौड़ नहीं, साधना है।” भावेश पाण्डेय का वक्तव्य (पर साधना किसकी? समाज की या स्वयं की — यही प्रश्न है। जो आए और जो नहीं आए — मौन की राजनीति,
इस बार कुछ बड़े नामों की अनुपस्थिति ने उतनी ही गूँज छोड़ी जितनी उपस्थित लोगों के भाषणों ने।जो आए, उन्होंने जनसंपर्क का अवसर देखा; जो नहीं आए, उन्होंने राजनीतिक दूरी का संदेश दिया।

एक वरिष्ठ पर्यवेक्षक का कहना था — “यह मैराथन थी, पर असल में यह ‘दौड़ कौन आगे निकलेगा’ की भविष्यवाणी थी।”अध्यात्म और आयोजन — सगुण से निर्गुण तक,मैराथन की आत्मा में अध्यात्म था।गेरुआ पट्टियाँ, “जय श्रीराम” के उद्घोष, योगसत्र और ध्यान —यह सब बताता है कि भारत में शरीर की साधना आत्मा की साधना से अलग नहीं।

मगर सवाल उठता है —क्या यह निर्गुण भाव था, जो सबको जोड़ता है?
या सगुण स्वरूप, जो प्रतीक और शक्ति दोनों दिखाता है? दोनों में अंतर सूक्ष्म है, पर संदेश बड़ा — “भारत में खेल भी अब संस्कृति का हिस्सा हैं।”
 स्थानीयता से वैश्विकता — बस्ती का आत्मविश्वास,१४वीं बस्ती मैराथन ने बताया कि,छोटे शहर अब केवल दर्शक नहीं, नेतृत्वकर्ता हैं। बस्ती ने यह स्थापित किया कि राष्ट्रीय चेतना का केंद्र दिल्ली या मुंबई नहीं, भारत का हर कस्बा हो सकता है।

यह आयोजन एक संदेश है — “हम भी दौड़ सकते हैं, और दिशा भी तय कर सकते हैं।” सफलता के बीच छूटे संवाद,हर सफलता के साथ कुछ मौन शिकायतें भी थीं —स्थानीय खिलाड़ियों ने कहा कि बड़े नामों की चमक में स्थानीय प्रतिभाएँ छिप गईं।कई युवाओं को लगा कि आयोजन में ‘जनभागीदारी’ की जगह ‘जनदिखावटी’ ज्यादा थी। यह आलोचनाएँ आयोजन की कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी लोकतांत्रिक परिपक्वता का प्रमाण हैं। जहाँ जन-आकांक्षा जागृत होती है, वहाँ जन-प्रतिक्रिया स्वाभाविक है।
 भावेश पाण्डेय और आयोजक मंडल — नीति, नियति और नाम,भावेश पाण्डेय इस आयोजन के मुख्य सूत्रधार हैं,उनका संयम, संगठन और संतुलन ने बस्ती मैराथन को स्थानीय ब्रांड बना दिया है। पर हर वर्ष राजनीति का गणित इसमें नई समीकरण बनाता है।कई पुराने सहयोगी अब किनारे हैं,
नए चेहरे सक्रिय हैं। यह बताता है कि “मैराथन में नाम की दौड़ भी उतनी ही कठिन है जितनी मैदान की।”

“मैराथन केवल शरीर की परीक्षा नहीं, चरित्र की परीक्षा भी है।”— संपादकीय दृष्टि से यह आयोजन आत्मबल का प्रतीक बन चुकाहै, राजनीति की पिच — हरी घास पर फिसलन,मैराथन का मैदान अब राजनीति की प्रयोगशाला बन चुका है। यह तय करता है कि कौन कितना लोकप्रिय है, किसकी पहुँच जनता तक गहरी है,और किसके नारे अब फीके पड़ रहे हैं। कई चेहरों पर मुस्कान थी, पर भीतर चिंता —“यह भीड़ किसकी है?”यह प्रश्न आने वाले चुनावी समीकरणों की दिशा तय करेगा।

आत्मसमीक्षा : सफलता से आगे का पथ,बस्ती मैराथन की सफलता निर्विवाद है, पर अब आवश्यक है कि यह आयोजन स्थायी सामाजिक प्रभाव छोड़े।यदि यह केवल एक दिन की हलचल है तो यह आत्म-संतोष है, पर यदि यह युवा अनुशासन और सामूहिक चेतना का संस्कार बन जाए, तो यह मैराथन से मंथन में रूपांतरित हो जाएगा। जो दौड़े, वह रुके भी और सोचे भी,१४वीं बस्ती मैराथन ने बस्ती को गति दी है, अब उसे दिशा चाहिए।दौड़ समाप्त हो गई, पर यात्रा अभी बाकी है —शरीर से आत्मा तक, आयोजन से समाज तक, और समाज से राजनीति तक।






 

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