सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

, योगी क़े ड्रीम प्रोजेक्ट में सेंध,मुंडेरवा मिल का घोटाला : गन्ने के मीठे रस में बड़ी साज़िश की बू

 


 भ्रष्टाचार, प्रशासनिक मिलीभगत और जनता की लूट






मुंडेरवा मिल का घोटाला : गन्ने के मीठे रस में सड़ी साज़िश की बू

बस्ती जनपद की धरती पर कभी गन्ने की मिठास से समृद्धि की खुशबू उठती थी। किसान के माथे पर संतोष था, क्योंकि मुंडेरवा की शुगर मिल उसके परिश्रम को मूल्य देती थी, उसकी फसल का सम्मान करती थी। पर आज वही मिल — जनता के पैसे, किसान के पसीने और सरकार की नीतियों के भरोसे पर खड़ी वह व्यवस्था — घोटालों की गंध से सड़ चुकी है। कहने को तो यह ‘राज्य की विकास परियोजना’ है, पर असल में यह उन अफ़सरशाही और ठेकेदार गठजोड़ों का गढ़ बन चुकी है, जहाँ हर ईंट पर कमीशन, हर फाइल पर कट, और हर स्वीकृति में सांठगांठ का दाग़ है। मुंडेरवा मिल में करोड़ों का घोटाला केवल आर्थिक अपराध नहीं है, यह सामाजिक विश्वास की हत्या है।

 घोटाला या योजनाबद्ध डकैती? घोटाला शब्द तो अब सामान्य हो चुका है — जैसे किसी विवाह में मिठाई बांटी जाए, वैसे ही हमारे सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार बाँटा जाता है। लेकिन मुंडेरवा का मामला अलग है.यहाँ जनता की आँखों के सामने, ‘विकास’ के नाम पर ‘विनाश’ की योजना चलायी गई। मशीनें खरीदी गईं, पर चलती नहीं; गन्ना आया, पर तौला नहीं गया; बिल पास हुए, पर भुगतान का ठिकाना न मिला। ठेकेदारों और अधिकारियों की मिलीभगत से करोड़ों रुपये हवा में उड़ गए, और जब मीडिया ने सवाल उठाया तो जवाब में वही पुराना राग — “जांच चल रही है।”प्रश्न यह है कि कब तक यह ‘जांच’ नाम का नाटक चलेगा?
किसी ने सटीक कहा है — भारत में जांच का अर्थ है ‘भूल जाने का आरंभ।’

 किसान की पीड़ा : पसीने की कीमत पर परजीवियों का उत्सव

जिस किसान ने अपनी ज़मीन से मिठास उगाई, वही आज अपने ही क्षेत्र की मिल के कारण कड़वाहट झेल रहा है। भुगतान वर्षों से लंबित, उत्पादन घटता जा रहा, और ऊपर से भ्रष्टाचार की मोटी परत — यह किसी नीति की विफलता नहीं, बल्कि नैतिक पतन की पराकाष्ठा है। किसानों ने उम्मीद की थी कि योगी सरकार के प्रयासों से मुंडेरवा मिल फिर से आत्मनिर्भर बनेगी, युवाओं को रोजगार मिलेगा, और गाँवों में फिर से जीवन फूटेगा। पर जो हुआ, वह इसका उल्टा था — योजनाएँ आईं, धनराशि आई, पर ‘विकास’ का स्वाद अफसरों की थाली तक सीमित रह गया।

 “शुगर मिल” या “शोषण मिल”?
आज यह सवाल उठाना जरूरी है कि मुंडेरवा मिल जनता की है या माफ़िया की? अगर सरकारें हर चुनाव से पहले इसका उद्घाटन, पुनः-उद्घाटन, पुनर्निर्माण और पुनः-घोषणा करती रहें, तो इसका अर्थ है कि व्यवस्था की मंशा ठीक नहीं है। हर बार नई मशीनों, नई समितियों, और नए ठेकेदारों के नाम पर वही पुराना खेल — “खर्च दिखाओ, काम छिपाओ।”
यह केवल एक औद्योगिक भ्रष्टाचार नहीं, बल्कि राज्य की नीति पर कलंक है।
क्योंकि जब कोई मिल लूट का केंद्र बन जाती है, तो उसका असर केवल अर्थव्यवस्था पर नहीं, समाज के मनोबल पर भी पड़ता है।

 जनता का धन, सत्ता की दलाली

केंद्र और राज्य सरकारें किसानों के नाम पर हजारों करोड़ की योजनाएँ घोषित करती हैं। पर यदि ज़मीन पर मुंडेरवा जैसा दृश्य दिखता है, तो इसका अर्थ है कि योजना की आत्मा मारी जा चुकी है।जो पैसा जनता के हित में लगाया जाना था, वह “कमीशन और कट” की संस्कृति में समा गया।

इस देश की सबसे बड़ी त्रासदी यही है —यहाँ चोर से बड़ा ‘जांच अधिकारी’ होता है।
और जब तक जांच का खेल चलता रहता है, तब तक भ्रष्टाचार के खिलाड़ी न केवल सुरक्षित रहते हैं, बल्कि पदोन्नत भी हो जाते हैं।


 कानून है कहां?

किसी भी लोकतांत्रिक समाज में कानून व्यवस्था का उद्देश्य होता है — “भ्रष्ट को भय और ईमानदार को विश्वास।”लेकिन मुंडेरवा के मामले में यह समीकरण उलट गया है।
यहाँ भ्रष्ट को संरक्षण और ईमानदार को प्रताड़ना मिलती है।जो अधिकारी आवाज़ उठाता है, उसका तबादला; जो पत्रकार सच्चाई दिखाता है, उसके ख़िलाफ़ मुक़दमा।
इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि लोकतंत्र में लूट का लाइसेंस मिल जाए!

 ‘विकास’ की परिभाषा बदलनी होगी 
आज भारत “विश्वगुरु” बनने की दिशा में अग्रसर है। लेकिन क्या हम ऐसे विश्वगुरु बनेंगे, जिसकी जड़ में हर गाँव में मुंडेरवा जैसी गंध हो?
विकास केवल बजट और योजनाओं से नहीं होता — विकास तब होता है जब जनता को न्याय, पारदर्शिता और सम्मान मिले। अगर हर सरकारी मिल, हर मंडी, हर बोर्ड में यही चल रहा है, तो यह केवल एक प्रशासनिक संकट नहीं — यह नैतिक राष्ट्रसंकट है।

 समय आ गया है — जवाबदेही तय हो,अब यह आवश्यक है कि मुंडेरवा मिल का पूरा ऑडिट केंद्र सरकार के किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराया जाए,और जिन अधिकारियों, इंजीनियरों या ठेकेदारों की भूमिका पाई जाए, उन्हें केवल निलंबित नहीं — संपत्ति जब्त कर जेल भेजा जाए। क्योंकि जब तक लूट का धन वापस जनता की झोली में नहीं आता, न्याय अधूरा रहता है।

कौटिल्य ने कहा था —

 “राजा का धर्म है प्रजा के धन की रक्षा; जो उसे लूटने दे, वह स्वंय दंड का भागी होता है।”



मुंडेरवा केवल एक मिल नहीं, एक चेतावनी है,मुंडेरवा मिल का घोटाला हमें याद दिलाता है कि जब राज्य सो जाता है, तो भ्रष्टाचार शासन करने लगता है। यदि इस प्रकरण में त्वरित कार्रवाई नहीं होती, तो यह सिर्फ एक ‘केस’ नहीं रहेगा — यह जनता की चेतना पर धब्बा बन जाएगा। बस्ती की जनता को अब यह तय करना होगा कि वह सहभागी बनेगी या साक्षी। क्योंकि यह केवल मुंडेरवा की लूट नहीं — यह राष्ट्र के चरित्र की परीक्षा है।
बड़ी लग्न से योगी आदित्य नाथ मुख्यमंत्री ने सौत्साह मिल का वीरवा रोपा था, उन्हें क्या पता था मिल में एक दशक के पहले ही घुन, दीमक लगकर  चाल डालेंगे




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