शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2025

संघ की शताब्दी: कांग्रेस का अरण्यरोदन, और वेश्विक पटल पर उभरता हिंदुत्व!

 

संघ की शताब्दी: कांग्रेस का अरण्य रोदन - और वेश्विक पटल पर उभरता हिंदुत्व
आरएसएस का सिक्का चल निकला राहुल जी!
राजेंद्र नाथ तिवारी
Kautilya ka bharat @gmail. Com


नागपुर, 3 अक्टूबर 2025 – जब दुनिया की नजरें भारत की सांस्कृतिक गहराई पर टिकी हैं, तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने विजयादशमी के पावन पर्व पर नागपुर के रेशमबाग मुख्यालय में अपना शताब्दी समारोह आयोजित कर इतिहास रचा। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित यह संगठन आज मात्र एक राष्ट्रवादी आंदोलन नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर हिंदू राष्ट्रवाद की एक शक्तिशाली धारा बन चुका है। सरसंघचालक मोहन भागवत के नेतृत्व में आयोजित इस भव्य उत्सव में पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और लाखों स्वयंसेवक  उभार के संदर्भ में प्रासंगिक है। अमेरिका से यूरोप तक, आरएसएस की शाखाओं का विस्तार – जो अब 100  से अधिक देशों में फैला है – दुनिया भर के विश्लेषकों के लिए एक आकर्षण का केंद्र बन गया है। यह संगठन न केवल आपदा राहत और सामाजिक सेवा में सक्रिय है, बल्कि जलवायु परिवर्तन से लेकर डिजिटल नैतिकता तक वैश्विक मुद्दों पर भी योगदान दे रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 1 अक्टूबर को जारी स्मारक सिक्का और डाक टिकट इसकी मान्यता के प्रतीक हैं, जो भारत को सांस्कृतिक महाशक्ति के रूप में स्थापित कर रहे हैं।
लेकिन इस वैभवपूर्ण क्षण में कांग्रेस की प्रतिक्रिया एक विडंबना प्रस्तुत करती है। जहां संघ की शताब्दी को देश-विदेश ने उत्साह से स्वीकारा, वहीं कांग्रेस ने महात्मा गांधी और सरदार पटेल के पुराने उद्धरणों का सहारा लेते हुए आरएसएस को "सांप्रदायिक संगठन" और "ब्रिटिश सहयोगी" करार दिया। जयराम रमेश जैसे नेता सिक्के पर 'भारत माता' की छवि को "संविधान का अपमान" बता रहे हैं, जबकि यह भारतीयता का प्रतीक है। यह "अरण्य-रोदन" ही क्या है? जब कांग्रेस की आवाज देश में गूंज नहीं पाती, तो उसके विदूषक विदेशी मंचों पर नाटक रचते हैं – जैसे गांधी की डायरी के पुराने पन्नों को हथियार बनाना। लेकिन सच्चाई यह है कि इतिहास के पन्ने पलट चुके हैं। आरएसएस ने स्वतंत्रता संग्राम से लेकर कोविड राहत तक राष्ट्र निर्माण में योगदान दिया है, जबकि कांग्रेस की आलोचना अब एक थका हुआ नाटक लगती है।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो आरएसएस की सफलता लोकतंत्र में सिविल सोसाइटी की भूमिका का उदाहरण है। अमेरिका के ट्रंप युग या यूरोप के राइट-विंग उभार की तरह, यह संगठन सांस्कृतिक पहचान को मजबूत कर रहा है, बिना हिंसा के। लेकिन सवाल यह है: क्या कांग्रेस इस "परीक्षा" में फेल हो गई? जहां संघ ने एकता का संदेश दिया, वहीं विपक्ष विभाजन की पुरानी स्क्रिप्ट पढ़ रहा है। यदि कांग्रेस को कोई सुनना बंद कर चुका है, तो शायद समय आ गया है कि वह आत्ममंथन करे – न कि विदेशी दर्शकों के लिए तमाशा सजाए।
शताब्दी का यह समारोह भारत के अगले सौ वर्षों का आह्वान है: आत्मनिर्भर, एकजुट और वैश्विक। संघ की यात्रा जारी रहेगी, जबकि आलोचक पीछे छूट जाएंगे। विजय का संदेश स्पष्ट है – अधर्म पर धर्म की विजय।
भारत माता युक्त सिक्का से परहेज करने वाली कांग्रेस कों आरएसएस का सिक्का अब मन या बेमन से स्वीकारना ही होगा.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें