सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

वाल्मीकि,, आदि कवि के साथ प्रथम लोक शिक्षक भी!







महर्षि वाल्मीकि : चिंतन, तत्कालीन समाज और आज का परिदृश्य

भारतीय संस्कृति की समस्त वैचारिक परंपरा में यदि किसी एक ऋषि को मानव धर्म का प्रथम कवि कहा जा सकता है, तो वह हैं — महर्षि वाल्मीकि।
उनके द्वारा रचित रामायण केवल एक कथा नहीं, बल्कि भारत की नैतिक चेतना का प्रथम महाकाव्य है।
यह वह युग था जब समाज राजनीतिक और नैतिक संक्रमण से गुजर रहा था— यज्ञों की बाह्य सत्ता प्रबल थी, किंतु अंतःकरण की करुणा लुप्तप्राय हो चली थी। ऐसे समय में वाल्मीकि ने काव्य के माध्यम से धर्म को पुनः मानव के भीतर स्थापित किया
 तत्कालीन सामाजिक परिदृश्य त्रेतायुग के उत्तरार्ध में भारतीय समाज एक प्रकार के संरचनात्मक विभाजन से जूझ रहा था। राजसत्ता यज्ञ-कर्मकांडों से प्रतिष्ठा पाती थी, परंतु नैतिकता और संवेदना धीरे-धीरे अनुष्ठानों की भीड़ में विलुप्त हो रही थी। स्त्री की भूमिका सीमित, शूद्रों की स्थिति अधीन, और कर्मकांड की व्याख्या ब्राह्मणों तक सीमित थी। ऐसे में वाल्मीकि का उदय केवल एक कवि के रूप में नहीं, बल्कि एक सामाजिक और आत्मिक क्रांति के प्रवर्तक के रूप में हुआ। उन्होंने उस समाज में करुणा का संचार किया — जिस क्षण उन्होंने एक शिकारी द्वारा मादा क्रौंच पक्षी की हत्या देखी, उसी क्षण उनके भीतर कवित्व का ज्वार फूट पड़ा। वह करुणा ही थी जिसने उन्हें कवि बनाया; इसीलिए रामायण भारतीय संस्कृति में करुणा की काव्यपरंपरा का आरंभ-बिंदु बन गई।

वाल्मीकि का चिंतन : धर्म का मानवीकरण,वाल्मीकि ने धर्म को यज्ञ या बलि नहीं, बल्कि व्यक्ति के आचरण और मनुष्यत्व में देखा। उनकी दृष्टि में धर्म कोई बाहरी नियम नहीं, बल्कि भीतर की चेतना का प्रकाश है। राम का चरित्र इसी प्रकाश का प्रतीक है — जो राजपुत्र होकर भी मर्यादा का दास बनता है, और सीता उसी धर्म की संवेदना का रूप। वाल्मीकि ने इस प्रकार धर्म को राजनीति, समाज और गृहस्थ जीवन के प्रत्येक स्तर पर मानवीय बनाया।
 सामाजिक न्याय की चेतना,वाल्मीकि स्वयं शूद्र वर्ण से आए थे — किंतु उनके चिंतन में किसी भी प्रकार की द्वेष या प्रतिशोध की भावना नहीं दिखती।
उन्होंने दिखाया कि ज्ञान और आचरण किसी जाति की बपौती नहीं, बल्कि मानव-स्वभाव की उपलब्धि है। उनका जीवन ही यह उद्घोष करता है कि “कर्म और साधना से कोई भी ब्रह्मदर्शी बन सकता है।” इस विचार ने भारतीय समाज में समानता और आत्मोन्नति की भावना का बीज बोया, जो आगे चलकर भक्ति आंदोलन तक निरंतर प्रवाहित हुआ।
 वाल्मीकि और आज का परिदृश्य, आज जब समाज पुनः धर्म और राजनीति के द्वंद्व, आचार और प्रदर्शन, तथा संवेदना और आक्रोश के बीच झूल रहा है तब वाल्मीकि की वाणी पहले से अधिक प्रासंगिक हो उठती है।
उन्होंने कहा था कि “धर्म वही है जो प्राणियों के हित में हो।” यह सूत्र आज के भारत में संविधानिक नैतिकता से लेकर सामाजिक सहअस्तित्व तक का आधार बन सकता है। आज जब वर्गीय विभाजन, धार्मिक उन्माद, और नैतिक पतन का युग पुनः सिर उठा रहा है,
तो वाल्मीकि हमें याद दिलाते हैं —

 “करुणा ही संस्कृति है, और संवेदना ही सभ्यता।” उनकी दृष्टि में सभ्यता की पहचान राजनीतिक शक्ति से नहीं, बल्कि नैतिक जागरूकता से होती है।
वाल्मीकि का आदर्श यही है कि मनुष्य चाहे राजा हो या वनवासी, यदि उसके भीतर न्याय, सत्य और करुणा है, तो वही राष्ट्रधर्म का वाहक है।

महर्षि वाल्मीकि भारतीय मानस के प्रथम लोकशिक्षक हैं।
उन्होंने यह सिखाया कि धर्म का मूल ग्रंथों में नहीं, जीवन में है।
उनकी रामायण केवल कथा नहीं, बल्कि भारत के नैतिक पुनर्जागरण की आरंभिक घोषणा है। आज जब भारत “नए युग के निर्माण” की दहलीज पर खड़ा है,
तो वाल्मीकि की चेतना हमें यही सन्देश देती है —
 “जो स्वयं के भीतर करुणा और सत्य की ज्वाला जगाएगा, वही युग का काव्य रचेगा।”





 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें