सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

आखिर तीनो स्तम्भ ठीक फिर प्रेस /मीडिया चौथा स्तम्भ क्यों नहीं? मोदी जी!

 प्रेस: लोकतंत्र का चौथा स्तंभ - वैधानिक मान्यता की अनिवार्यता



संपादकीय
भारतीय लोकतंत्र की नींव तीन स्तंभों - विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका - पर टिकी हुई है, लेकिन इनके साथ-साथ एक अदृश्य, फिर भी अत्यंत शक्तिशाली स्तंभ है, जिसे हम 'प्रेस' या 'मीडिया' कहते हैं। प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, क्योंकि यह न केवल सूचना का माध्यम है, बल्कि शासन की निगरानीकर्ता, जनमत का निर्माणकर्ता और सत्य की पहरेदार भी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया है, जो प्रेस की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है। किंतु, विडंबना यह है कि भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में प्रेस को अभी तक वैधानिक रूप से चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं हुई है।  और नतो कभी किसी और से प्रयास ही हुआ है.यह कमी न केवल प्रेस की असुरक्षा को बढ़ाती है, बल्कि लोकतंत्र की समग्र मजबूती पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है।
आज, जब विश्व पटल पर लोकतंत्र संकट के दौर से गुजर रहा है - अमेरिका में 'फेक न्यूज' का प्रकोप, चीन में सेंसरशिप का राज और रूस में मीडिया पर सरकारी नियंत्रण - भारत को अपनी प्रेस स्वतंत्रता को मजबूत करने की आवश्यकता है। 2025 में, जब हम डिजिटल युग के दौर में हैं, जहां सोशल मीडिया और एआई-आधारित न्यूज प्लेटफॉर्म्स ने प्रेस की भूमिका को और विस्तार दिया है, तब भी प्रेस पर लगाए जाने वाले प्रतिबंधों की घटनाएं चिंताजनक हैं। उदाहरणस्वरूप, हाल के वर्षों में पत्रकारों पर हमले, एफआईआर और सेंसरशिप के प्रयासों ने प्रेस की स्वतंत्रता को चुनौती दी है। लेकिन इतिहास हमें सिखाता है कि प्रेस की असुरक्षा लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। 1975-1977 का आपातकाल इसका सबसे काला उदाहरण है, जब प्रेस पर अभूतपूर्व सेंसरशिप थोपी गई और लोकतंत्र की जड़ें हिल गईं।अनेक अखबारों को प्रकाशन भी बंद करदेने पड़े.
इस संपादकीय में हम प्रेस को चौथे स्तंभ की वैधानिक मान्यता की आवश्यकता पर चर्चा करेंगे, विशेषकर आपातकाल के उदाहरणों के प्रकाश में। हम देखेंगे कि कैसे प्रेस ने आपातकाल के अंधेरे दौर में भी सत्य की ज्योति जलाए रखी, और आज की परिस्थितियों में वैधानिक संरक्षण की अनुपस्थिति कितनी घातक है। अंत में, हम नीतिगत सुझाव देंगे, ताकि प्रेस न केवल जीवित रहे, बल्कि लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ बने। यह चर्चा न केवल ऐतिहासिक है, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए एक चेतावनी भी है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: आपातकाल का काला अध्याय
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रेस की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। महात्मा गांधी के 'यंग इंडिया' और 'हरिजन' से लेकर जवाहरलाल नेहरू के 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' तक, प्रेस ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनजागरण का कार्य किया। स्वतंत्र भारत में भी, प्रेस ने लोकतंत्र को मजबूत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन 25 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल ने इस स्वतंत्रता को कुचल दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले में इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित करने के बाद, उन्होंने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा करवा ली। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव प्रेस पर पड़ा।
आपातकाल के दौरान, सरकार ने 'डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स' (DIR) के अंतर्गत प्रेस सेंसरशिप लागू की। 26 जून, 1975 को ही, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एक गुप्त सर्कुलर जारी किया, जिसमें समाचार पत्रों को निर्देश दिया गया कि वे सरकार की पूर्व-अनुमति के बिना कोई भी सामग्री प्रकाशित न करें। इस सेंसरशिप ने प्रेस को न केवल मुखर होने से रोका, बल्कि समाज को सूचना के अंधकार में धकेल दिया। अधिकांश राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया, और 1 लाख से अधिक लोगों को बिना मुकदमे के हिरासत में लिया गया प्रेस, जो जनता का आईना था, अब सरकारी प्रचार का माध्यम बन गया।

आपातकाल की पृष्ठभूमि में आर्थिक संकट, मुद्रास्फीति और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 'संपूर्ण क्रांति' आंदोलन ने इंदिरा सरकार को घेर लिया था। लेकिन सत्ता की रक्षा के नाम पर प्रेस पर हमला किया गया। रेडियो, टेलीग्राफ और फिल्मों पर भी सरकारी नियंत्रण थोप दिया गया। सेंसरशिप का यह तंत्र इतना कठोर था कि समाचार पत्रों के संपादकों को रातोंरात गिरफ्तार कर लिया जाता था यदि वे 'अनुचित' सामग्री प्रकाशित करते। इस दौर में प्रेस ने न केवल अपनी स्वतंत्रता खोई, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को भी घायल किया। इतिहासकारों के अनुसार, सेंसरशिप ने समाज को परमाणुकरण (atomizing) कर दिया और भय का वातावरण बना दिया।
आपातकाल 21 महीनों तक चला, लेकिन इसके प्रभाव आज भी महसूस होते हैं। यह घटना दर्शाती है कि प्रेस की स्वतंत्रता बिना वैधानिक संरक्षण के कितनी नाजुक है। सर्वोच्च न्यायालय ने बाद में 'केसरी बनाम पंजाब राज्य' (1962) जैसे मामलों में प्रेस स्वतंत्रता को राष्ट्रीय हित से ऊपर रखा, लेकिन आपातकाल ने सिद्ध कर दिया कि आपात स्थितियों में यह अधिकार कितनी आसानी से कुचला जा सकता है। आज, जब हम 50 वर्ष बाद इसकी याद ताजा कर रहे हैं, तो सवाल उठता है: क्या हमने सबक लिया है?
आपातकाल में प्रेस पर प्रतिबंध: जीवंत उदाहरण
आपातकाल के दौरान प्रेस सेंसरशिप के अनेक उदाहरण हैं, जो सरकारी मनमानी की गाथा बयान करते हैं। सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है 26 जून, 1975 को 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' का संपादकीय पृष्ठ खाली छोड़ देना। सेंसर अधिकारियों ने सभी सामग्री को अस्वीकार कर दिया, तो संपादक ने विरोध के स्वरूप में पूरा पृष्ठ खाली छाप दिया। पृष्ठ पर केवल एक छोटा सा नोट था: "सरकार ने हमें कुछ भी छापने की अनुमति नहीं दी।" यह प्रतीकात्मक विरोध प्रेस की नैतिक शक्ति का प्रतीक बना। इसी प्रकार, 'इंडियन एक्सप्रेस' के मालिक रामनाथ गोयंका  ने सेंसरशिप के विरुद्ध खुला विद्रोह किया। उन्होंने अपने समाचार पत्र को कई दिनों तक प्रकाशित न करने का फैसला लिया, और कहा, "मैं अपना अखबार सरकारी प्रचार का माध्यम नहीं बनने दूंगा।" गोयंका को बाद में गिरफ्तार किया गया, लेकिन उनका यह कदम प्रेस की गरिमा को बचाए रखा।
एक और मार्मिक उदाहरण है गुजराती दैनिक 'दैनिक भास्कर' का। इसके संपादक किशोरलाल शाह ने इंदिरा गांधी की जीवनी पर आधारित एक लेख प्रकाशित किया, जो सरकार को असहज कर गया। नतीजा? अखबार जब्त कर लिया गया और शाह को गिरफ्तार कर लिया गया। यह घटना दर्शाती है कि कैसे व्यक्तिगत लेखन भी 'राष्ट्रीय सुरक्षा' के नाम पर दबा दिया गया। इसी क्रम में, 'फ्रंटियर', 'साधना', 'जनता', 'हिम्मत' और 'स्वराज' जैसे छोटे समाचार पत्रों को तुरंत सेंसरशिप का शिकार होना पड़ा। रांची एक्सप्रेस, जो उस समय बिहार का एकमात्र प्रमुख अखबार था, भी बंद कर दिया गया।वाराणसी से प्रकाशिक  गाण्डीव ने सम्पादकीय का पन्ना ही खाली छोड़ दिया.आपात काल का तो मेस्वयं भुक्तभोगी ही हुँ.
विदेशी पत्रकारों पर भी पाबंदियां लगाई गईं। 'द गार्जियन' के मार्क टुली को देश से निष्कासित कर दिया गया, क्योंकि उनकी रिपोर्टिंग सरकार के लिए असुविधाजनक थी। दिल्ली में झुग्गी-झोपड़ियों की तोड़फोड़, तिहाड़ जेल की स्थितियों और जेपी आंदोलन की कवरेज पर प्रतिबंध लगा। सरकारी विज्ञापनों की वापसी, आयकर छापे और पत्रकारों को 'सुझावपूर्ण' फोन कॉल्स के माध्यम से दबाव बनाया गया।à
 ये उदाहरण न केवल प्रेस की दयनीय स्थिति को उजागर करते हैं, बल्कि यह भी सिद्ध करते हैं कि सेंसरशिप लोकतंत्र को कैसे कमजोर करती है।

आपातकाल के दौरान प्रेस ने जो प्रतिरोध किया, वह प्रेरणादायक है। 'द स्टेट्समैन' के संपादक सी.आर. इरानी ने गुप्त रूप से लेख लिखे, जो बाद में प्रकाशित हुए। कुल मिलाकर, ये उदाहरण बताते हैं कि प्रेस बिना वैधानिक कवच के सरकारी दमन का शिकार बन जाता है। आज, जब डिजिटल सेंसरशिप का खतरा मंडरा रहा है, इनसे सीख लेना आवश्यक है।
वर्तमान संदर्भ: प्रेस की चुनौतियां और वैधानिक कमी
आपातकाल समाप्त हो चुका है, लेकिन प्रेस की असुरक्षा बनी हुई है। 2025 में, भारत प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 150वें स्थान पर है, जो गिरावट दर्शाता है। पत्रकारों पर हमले, फर्जी खबरों के नाम पर मुकदमे और सरकारी एजेंसियों का दखल बढ़ रहा है। उदाहरणस्वरूप, हाल के वर्षों में कई पत्रकारों को UAPA के तहत गिरफ्तार किया गया। यह आपातकाल की याद दिलाता है।
वैधानिक मान्यता की कमी का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि प्रेस को न्यायपालिका या विधायिका जितना संरक्षण नहीं मिलता। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (PCI) एक सलाहकारी निकाय मात्र है, जिसके पास बाध्यकारी शक्तियां नहीं हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, अमेरिका का फर्स्ट अमेंडमेंट या यूरोपीय कन्वेंशन ऑन ह्यूमन राइट्स प्रेस को मजबूत संरक्षण देते हैं। भारत को भी संविधान में प्रेस को स्पष्ट चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता देनी चाहिए।
डिजिटल युग में, सोशल मीडिया पर सेंसरशिप के प्रयास - जैसे IT रूल्स 2021 - प्रेस की स्वतंत्रता को नया खतरा पैदा कर रहे हैं। एआई-जनित डीपफेक और मिसइंफॉर्मेशन के दौर में, प्रेस को वैधानिक कवच की अधिक आवश्यकता है।

नीतिगत सुझाव और निष्कर्ष
प्रेस को चौथे स्तंभ की वैधानिक मान्यता प्रदान करने हेतु निम्न सुझाव हैं:
संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 19 में प्रेस को स्पष्ट मान्यता।
आपातकाल जैसी स्थितियों में प्रेस प्रतिबंध पर संसदीय समीक्षा अनिवार्य।
PCI को स्वायत्तता और दंडात्मक शक्तियां प्रदान।
पत्रकार सुरक्षा कानून का निर्माण।
निष्कर्षतः, प्रेस लोकतंत्र की धुरी है। आपातकाल के उदाहरण हमें सतर्क करते हैं कि स्वतंत्रता की रक्षा वैधानिक संरक्षण से ही संभव है। यदि हम प्रेस को मजबूत बनाएंगे, तो भारत विश्व का सबसे मजबूत लोकतंत्र बनेगा। समय आ गया है कि सरकार, न्यायपालिका और नागरिक एकजुट हों। प्रेस की स्वतंत्रता ही हमारी स्वतंत्रता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें