जूता गवई पर नहीं, बल्कि उस भारत पर पड़ा — जो ब्राह्मण नहीं, बुद्ध से भी आगे सोचता है
एक जूते की राजनीति और भारत की चेतना
एक जूते की राजनीति और भारत की चेतना
सुप्रीम कोर्ट की पवित्र चौखट पर, जहां संविधान की धड़कन गूंजती है, एक जूता उछला। यह जूता न केवल मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई पर फेंका गया, बल्कि यह एक पूरे राष्ट्र की अंतर्कलुषित चेतना पर प्रहार था। 6 अक्टूबर 2025 को, 71 वर्षीय वकील राकेश किशोर ने अदालत में खुलेआम यह कोशिश की, चिल्लाते हुए कि "सनातन का अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान।" लेकिन क्या यह हमला वाकई गवई पर था? नहीं। यह जूता उस भारत पर पड़ा — जो ब्राह्मण नहीं, बुद्ध से भी आगे सोचता है। यह वह भारत है जो जाति की बेड़ियों को तोड़ने का साहस जुटाता है, समानता की ज्योति जलाता है और बौद्ध दर्शन की करुणा से आगे बढ़कर मानवतावादी मूल्यों को अपनाता है।
यह घटना मात्र एक व्यक्तिगत आक्रोश नहीं, बल्कि भारत की सामाजिक संरचना में व्याप्त जातिवाद की गहरी जड़ों का प्रतिबिंब है। गवई, जो दलित पृष्ठभूमि से आते हैं और जिनका परिवार हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म में दीक्षित हुआ, सर्वोच्च पद पर पहुंचे तो उच्च जातीय अभिजात्य का अहंकार बेचैन हो उठा। जूता फेंकने वाला वकील, जो खुद को "दलित" बताते हुए बुद्ध के विचारों से प्रभावित होने का दावा करता है, वास्तव में सनातनी कट्टरता का प्रतीक बन गया। यह विरोधाभास ही भारत की विडंबना है — जहां बुद्ध का नाम लेते हुए भी ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रह जीवित हैं।
इस में हम इस जूते के प्रतीकात्मक अर्थ की पड़ताल करेंगे। हम देखेंगे कि कैसे यह घटना जातिवाद की जड़ों को उजागर करती है, बौद्ध चिंतन से आगे की प्रगतिशील सोच को रेखांकित करती है, और एक ऐसे भारत की कल्पना को मजबूत करती है जो समावेशी और न्यायपूर्ण हो।
जातिवाद का ऐतिहासिक भूत: ब्राह्मणवाद की छाया में भारत
भारतीय समाज की नींव में जाति व्यवस्था इतनी गहरी उतर चुकी है कि यह आधुनिक संस्थाओं को भी भेद लेती है। वेदों से लेकर मनुस्मृति तक, ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने वर्णाश्रम को पवित्रता का आवरण दिया, जहां ब्राह्मण शीर्ष पर विराजमान हैं और शूद्र-दलित निचले पायदान पर। बौद्ध धर्म का उदय इसी के विरुद्ध था। गौतम बुद्ध ने, लगभग 2500 वर्ष पूर्व, जाति को अमानवीय ठहराया। उन्होंने कहा, "जन्म से कोई ब्राह्मण या चांडाल नहीं होता, कर्म से बनता है।" बुद्ध की यह सोच क्रांतिकारी थी — यह ब्राह्मणवाद की कर्मकांडों पर आधारित श्रेष्ठता को चुनौती देती थी।
लेकिन बौद्ध चिंतन से भी आगे का भारत संभव है। डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने 1956 में नागपुर में लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया, न केवल जाति-विरोध के लिए, बल्कि एक नई सामाजिक क्रांति के लिए। अंबेडकर का भारत ब्राह्मण-विरोधी नहीं, बल्कि समता-आधारित था। उन्होंने संविधान में आरक्षण, समान अवसर और धर्मनिरपेक्षता को उतार दिया, जो बुद्ध की करुणा से आगे की न्यायपूर्ण व्यवस्था है। गवई का परिवार भी इसी परंपरा का हिस्सा है — हिंदू धर्म के जातिगत अपमान से तंग आकर बौद्ध बने।
फिर भी, सुप्रीम कोर्ट जैसे शीर्ष संस्थान में जातिवाद का सेंध लगना शर्मनाक है। 2007 में के.जी. बालाकृष्णन पहले दलित मुख्य न्यायाधीश बने, लेकिन तब सोशल मीडिया का युग नहीं था। आज, जब गवई पद ग्रहण करते हैं, तो हिंदुत्व लॉबी सक्रिय हो जाती है। एक सामान्य याचिका खारिज करने पर उन्हें "हिंदू-विरोधी" ठहराया जाता है, क्योंकि वे "असंतानी" हैं। यह "सनातन" शब्द ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म का कोड है, जहां दलितों की कोई जगह नहीं। जूता फेंकने वाले ने चिल्लाया, "भगवान ने मुझसे कहा," लेकिन यह दिव्य आदेश जातिगत घृणा का मुखौटा मात्र था।
ऐतिहासिक रूप से, ऐसे हमले नये नहीं। 1927 में महात्मा गांधी पर जूता फेंका गया था, लेकिन वह राजनीतिक था। यहां, यह जातिगत है। यह दिखाता है कि स्वतंत्र भारत में भी, ब्राह्मणवाद की छाया लंबी है। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की प्रतिक्रिया भी सुस्त रही — हमलावर को सम्मानजनक कवरेज मिला, जबकि गवई की गरिमा पर सवाल नहीं। यह भारत की उस मानसिकता को उजागर करता है जो प्रगति को जाति के चश्मे से देखती है।
बुद्ध से आगे की सोच: प्रगतिशील भारत की कल्पना
बुद्ध ने जाति को नकारा, लेकिन उनका दर्शन मुख्यतः आध्यात्मिक था — चार आर्य सत्य, अष्टांगिक मार्ग। लेकिन आज का भारत बुद्ध से आगे सोचने को बाध्य है। वैज्ञानिक युग में, जहां क्वांटम भौतिकी और एआई जैसी तकनीकें जाति-जाति के बंधन तोड़ रही हैं, हमें मानवाधिकारों, पर्यावरण न्याय और वैश्विक समावेश की सोच अपनानी होगी। गवई का भारत यही है — जो संविधान की रक्षा करता है, न कि सनातनी कर्मकांडों की।
प्रगतिशील भारत की मिसालें कम नहीं। केरल में सामाजिक न्याय आयोग, तमिलनाडु में पेरियार की विरासत, या बिहार में लालू प्रसाद यादव के आरक्षण आंदोलन — ये सब ब्राह्मण-केंद्रित नहीं, बल्कि बहुलवादी हैं। बुद्ध ने कहा था, "सब्बे सत्ता सुखिता भवन्तु" (सभी प्राणी सुखी हों), लेकिन आगे की सोच यह है कि सुख समान वितरण हो। संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) में भारत की प्रतिबद्धता इसी दिशा में है — लिंग समानता, गरीबी उन्मूलन।
जूता घटना इस प्रगति पर प्रहार है। हमलावर ने दावा किया कि वह "बुद्ध के विचारों से प्रभावित दलित" है और दोबारा करेगा। यह विडंबना है — बुद्ध, जो अहिंसा के पुजारी थे, उनका नाम हिंसा के लिए इस्तेमाल। यह दिखाता है कि भारत में बौद्ध धर्म भी राजनीतिक उपकरण बन गया है। लेकिन सच्चा प्रगतिशील भारत इसे पार करेगा। जैसे अंबेडकर ने नवयान बौद्ध धर्म गढ़ा, वैसे ही आज हमें "नवभारत" की जरूरत — जो जाति से परे, विज्ञान और तर्क पर आधारित हो।
समसामयिक राजनीति में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घटना की निंदा की, लेकिन देरी से। यह राजनीतिक संतुलन है — दलित वोट बैंक को खुश रखना, लेकिन हिंदुत्व कट्टरपंथियों को नाराज न करना। बिहार चुनाव नजदीक हैं, जहां जाति निर्णायक है। लेकिन क्या यह पर्याप्त है? लेखक वीर सांघवी सही कहते हैं कि अगर "सिस्टम हमारा है" कहने वाले यूट्यूबरों को छूट मिलती है, तो दलितों की उम्मीदें मर जाएंगी।
जूते का प्रतीकवाद: अपमान से संघर्ष तक
जूता, भारतीय संस्कृति में अपमान का प्रतीक है। 2008 में जर्नलिस्ट मुनसिफ अली ने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जूता फेंका, जो इराक युद्ध के विरोध में था। भारत में, यह जातिगत अपमान का हथियार बन गया। गवई पर जूता फेंकना न केवल व्यक्तिगत, बल्कि संस्थागत हमला है — सुप्रीम कोर्ट को दलित-विरोधी ठहराना। सीनियर वकील दुष्यंत दवे ने कहा, "हिंदू धर्म को कोई खतरा नहीं, 5000 साल से कोई हिला नहीं सका।" लेकिन खतरा तो ब्राह्मणवाद को है, जो प्रगति से डरता है।
यह घटना दलित आंदोलनों को जागृत करेगी। भीम आर्मी जैसे संगठन सक्रिय हो चुके हैं। सोशल मीडिया पर #JusticeForGavai ट्रेंड कर रहा है, जहां युवा पीढ़ी बुद्ध से आगे की सोच अपना रही — ब्लैक लाइव्स मैटर से प्रेरित, जाति-विरोधी अभियान। लेकिन चुनौतियां बड़ी हैं। यूपी पुलिस ने नफरत फैलाने वाले को चाय पिलाई और छोड़ दिया, जो सिस्टम की पक्षधरता दिखाता है।
प्रगतिशील भारत बनाने के लिए, हमें शिक्षा, कानूनी सुधार और सांस्कृतिक परिवर्तन चाहिए। स्कूलों में बौद्ध दर्शन पढ़ाएं, लेकिन अंबेडकर की व्याख्या के साथ — जो बुद्ध से आगे जाती है। मीडिया को जिम्मेदार बनाएं, ताकि हमलावरों को हीरो न बनाया जाए।
एक नया भारत, जूते से परे
जूता गवई पर नहीं पड़ा, बल्कि उस भारत पर पड़ा जो ब्राह्मण नहीं, बुद्ध से भी आगे सोचता है। यह भारत संविधान का है, जहां न्याय सबका है। घटना दुखद है, लेकिन आशा जगाती है — क्योंकि गवई ने प्रतिक्रिया न देकर गरिमा दिखाई। हमलावर का घमंड टूटेगा, जब लाखों आवाजें उठेंगी।
प्रगतिशील भारत की राह कठिन है, लेकिन संभव। बुद्ध ने अज्ञान को माया कहा; आज हम इसे जातिवाद कहते हैं। आगे सोचें — समावेशी अर्थव्यवस्था, डिजिटल समानता, पर्यावरण न्याय। तब तक, यह जूता याद रहेगा — न अपमान का, बल्कि जागृति का प्रतीक।

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