दीपावली : भीतर के अंधकार पर विजय का संकल्प
मर्मस्पर्शी अग्रलेख
दीपों की पंक्तियाँ सजी हैं, बाज़ार चमक रहा है, मिठाइयों की गंध हवा में है — लेकिन क्या यह वही दीपावली है जो हमारे ऋषियों, संतों और जननायकों ने जानी थी?
क्या सचमुच अंधकार मिट रहा है, या हम केवल अंधकार को रंगीन पर्दों से ढक रहे हैं? दीपावली का अर्थ केवल दीप जलाना नहीं, अंधकार से संवाद करना है — उस अंधकार से जो बाहर नहीं, भीतर बैठा है। वह अंधकार जो हमारी राजनीति में कपट बनकर, न्याय में विलंब बनकर, मीडिया में बिके शब्द बनकर और समाज में पाखंड बनकर फैल चुका है। आज दीपावली केवल ‘त्योहार’ नहीं, एक ‘परीक्षा’ बन गई है — यह देखने की कि क्या हम अभी भी उजाले के पात्र हैं।
अंधकार बाहर नहीं, भीतर है, आज हम अपने घरों की दीवारों को रंग रहे हैं, पर अपने मन की दीवारों पर जमी धूल को कौन झाड़ रहा है? ईर्ष्या, लोभ, स्वार्थ और दिखावे का जो धुआँ हमारे समाज में फैल चुका है, वह किसी दीपक की लौ से नहीं मिटता — उसे केवल सत्य का साहस मिटा सकता है।
राजा मिदास के पास सोना था, पर सुख नहीं। महा पद्मनंद के पास सत्ता थी, पर शांति नहीं। आज के नेताओं के पास धन है, मीडिया है, सुरक्षा है — पर आत्मा की रोशनी कहाँ है?वे दीपावली पर भी आत्मप्रचार के विज्ञापन जलाते हैं, न कि आत्मदीप।
भारत ने सदियों से यही सिखाया — “तमसो मा ज्योतिर्गमय” —पर अब लगता है, हमने मंत्र को उलट दिया है — “ज्योतिः स्म तमो गमय” — यानी प्रकाश से अंधकार की ओर।
जब शासन ही अंधकार फैलाए, किसी युग का सबसे बड़ा अंधकार तब नहीं होता जब सूर्य अस्त होता है, बल्कि तब होता है जब राजनीति नैतिकता को निगल जाती है। जब “जनसेवा” केवल चुनावी नारा रह जाए, जब “विकास” ठेकेदारों के लाभांश में बदल जाए, जब “लोकतंत्र” केवल वोट बैंक का खेल रह जाए — तब दीपक नहीं, आग जलनी चाहिए।आज शासन सत्ता का नहीं, संवेदना का प्रश्न बन गया है।
राजा जनक ने जब सीता के विवाह में शर्त रखी थी — “धनु तोड़ने वाला ही वरण पाएगा” — तो वह केवल शक्ति की परीक्षा नहीं थी, वह धर्म की परीक्षा थी।
आज के शासक ‘धनु’ नहीं तोड़ते, ‘धन’ जोड़ते हैं। कृष्ण ने कहा था — “जब-जब धर्म की हानि होती है, तब मैं अवतरित होता हूँ।” पर आज धर्म की हानि हर पल होती है, और हम केवल ट्वीट कर देते हैं। राजा राम ने रावण को मारा क्योंकि वह ‘अहंकार’ का प्रतीक था। आज का रावण अनेक सिरों वाला है — कोई भ्रष्टाचार का, कोई लालच का, कोई जातिवाद का, कोई झूठ का। पर क्या हमारे भीतर कोई राम बचा है जो उसे मार सके?
न्याय का दीप बुझता क्यों है? दीपावली न्याय की भी प्रतीक है — जब राम ने अयोध्या लौटकर न्यायपूर्ण राज्य की स्थापना की थी।पर आज न्यायालयों में वर्षों तक “सत्य” फाइलों में धूल खाता है। निर्दोष व्यक्ति सजा पाता है, और अपराधी प्रेस कांफ्रेंस करता है। अगर न्याय की लौ इतनी कमजोर हो जाए कि उसे राजनीतिक हवाएँ बुझा दें, तो दीपावली पर दीप जलाने का औचित्य ही क्या रह जाता है?कभी राजा हरिश्चंद्र को सत्य के लिए सब कुछ खोना पड़ा,आज झूठ के व्यापारी पद, सम्मान और पुरस्कार पाते हैं। यह कैसी विडंबना है — झूठ का बाज़ार बढ़ रहा है और सत्य “ट्रेंड” नहीं करता!
- पत्रकारिता की बुझी लौ, पत्रकार कभी समाज का दीपक हुआ करता था।वह अंधकार में भी सत्य का प्रकाश फैलाता था, पर अब अधिकांश पत्रकार स्वयं “बिजली के बिल” से जुड़े हैं — यानी सत्ता के बोर्ड से। किसी खबर का मूल्य अब उसके ‘प्रचार प्रभाव’ से आँका जाता है, न कि उसके ‘सत्य प्रभाव’ से।पत्रकारिता अब चौथा स्तंभ नहीं, चौथा ठेका बन चुकी है.जहाँ पहले कलम से क्रांति होती थी, वहाँ अब ‘कॉन्ट्रैक्ट’ से खबरें होती हैं। दीपावली का असली दीप वह है जो बिना डर के जले —जो सत्ता की आँख में आँख डालकर कह सके —“मैं बिकाऊ नहीं हूँ।
नागरिक का आत्मदीप,सत्ता, मीडिया, न्यायालय — ये सब व्यवस्था के अंग हैं, पर इनका स्रोत “नागरिक” ही है।अगर नागरिक ही अंधा हो जाए, तो अंधकार कौन मिटाएगा? हम भ्रष्टाचार के खिलाफ गालियाँ देते हैं, पर छोटे-छोटे झूठ बोलकर खुद उसे जन्म देते हैं। हम नेताओं से ईमानदारी की अपेक्षा करते हैं, पर टैक्स बचाने पर गर्व करते हैं। दीपावली पर हर नागरिक को एक व्रत लेना चाहिए —कि वह अपनी आत्मा के भीतर झाँके, और पूछे — “क्या मैं इस अंधकार का सहभागी तो नहीं?”
क्योंकि जब समाज के हर व्यक्ति का दीपक जलेगा, तभी राष्ट्र उज्ज्वल होगा।राष्ट्र किसी माला की तरह है —हर व्यक्ति एक मनका है,और अगर एक मनका भी मैला है,
तो पूरी माला की चमक खो जाती है।
. दीप का अर्थ : आत्मसंघर्ष का प्रतीक, दीप जलाना आसान है, पर उसे जलाए रखना कठिन। बाती को तेल में डुबोकर रखना पड़ता है —यानी मन को सतत साधना में रखना पड़ता है।अगर दीप का अर्थ केवल उत्सव होता, तो ऋषि उसे “दीपदान” न कहते —वे उसे “दीपयज्ञ” कहते हैं।
“दीपयज्ञ” का अर्थ है —अपने भीतर के तम को यज्ञ में आहुति देना। अपने स्वार्थ को, अपने झूठ को, अपने लोभ को —आग में समर्पित कर देना।जब ऐसा होता है, तब मनुष्य केवल “प्रकाश” नहीं फैलाता, वह प्रकाश बन जाता है।
और वही असली दीपावली है।
राजनीति से राष्ट्रनीति की ओर,भारत की समस्या यह नहीं कि यहाँ अंधकार है,
समस्या यह है कि यहाँ प्रकाश के नाम पर व्यापार है।हर नेता अपने भाषणों में दीपावली की शुभकामनाएँ देता है, पर अगले ही दिन जनता के हिस्से का प्रकाश काट देता है।दीपावली की सच्ची राजनीति वह है,जहाँ नीति दीपक बने और सत्ता उसका तेल।जहाँ निर्णय राष्ट्रहित में हों,और वादे धर्मसंगत हों।जब तक राजनीति, धर्म और सत्य के मार्ग पर नहीं लौटती —तब तक यह उत्सव केवल “लाइटिंग” रहेगा, “प्रकाश” नहीं।
दीपावली का अर्थ — राष्ट्र का आत्मचिंतन, राम का अयोध्या लौटना केवल एक व्यक्तिगत विजय नहीं थी, वह सत्य, तप और मर्यादा की सामाजिक स्थापना थी।
आज हमें फिर वैसी ही दीपावली चाहिए —जहाँ हर नागरिक अपने भीतर के रावण को जलाए,हर नेता अपनी लालसा को, हर पत्रकार अपने भय को,और हर न्यायाधीश अपने पूर्वाग्रह को।केवल तभी यह पर्व सार्थक होगा।वरना यह केवल पटाखों का कोलाहल और रोशनी का दिखावा रहेगा।
“एक दीप अपने भीतर”,आओ इस दीपावली हम सब मिलकर प्रण लें —कि हम अपने भीतर के अंधकार को पहचानेंगे, उसे कम करने का प्रयास करेंगे।बेईमानी पूरी तरह मिटे न मिटे,पर हम उसे घटाने का साहस तो रखें।दीपावली का असली अर्थ यही है —“जब एक दीपक दूसरे को जलाए, तो दोनों का प्रकाश बढ़ता है, घटता नहीं।”इसलिए,अगर शासन में सच्चाई की लौ जले,न्याय में निष्पक्षता की बाती सुलगे,पत्रकारिता में निर्भीकता की रौशनी फैले,और नागरिक के मन में सत्य का दीप जले —तभी कह पाएँगे —“अब सच में दीप जले हैं —भीतर भी, बाहर भी!”
दीपावली का अर्थ — राष्ट्र का आत्मचिंतन, राम का अयोध्या लौटना केवल एक व्यक्तिगत विजय नहीं थी, वह सत्य, तप और मर्यादा की सामाजिक स्थापना थी।
आज हमें फिर वैसी ही दीपावली चाहिए —जहाँ हर नागरिक अपने भीतर के रावण को जलाए,हर नेता अपनी लालसा को, हर पत्रकार अपने भय को,और हर न्यायाधीश अपने पूर्वाग्रह को।केवल तभी यह पर्व सार्थक होगा।वरना यह केवल पटाखों का कोलाहल और रोशनी का दिखावा रहेगा।
“एक दीप अपने भीतर”,आओ इस दीपावली हम सब मिलकर प्रण लें —कि हम अपने भीतर के अंधकार को पहचानेंगे, उसे कम करने का प्रयास करेंगे।बेईमानी पूरी तरह मिटे न मिटे,पर हम उसे घटाने का साहस तो रखें।दीपावली का असली अर्थ यही है —“जब एक दीपक दूसरे को जलाए, तो दोनों का प्रकाश बढ़ता है, घटता नहीं।”इसलिए,अगर शासन में सच्चाई की लौ जले,न्याय में निष्पक्षता की बाती सुलगे,पत्रकारिता में निर्भीकता की रौशनी फैले,और नागरिक के मन में सत्य का दीप जले —तभी कह पाएँगे —“अब सच में दीप जले हैं —भीतर भी, बाहर भी!”
तब असली तमसो माँ ज्योतिर्गमय होगा.
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