एस. एल. भैरप्पा: अपूर्णीय क्षति की मार्मिक स्मृति
परंतु उनकी सृजनशीलता और विचारधारा आने वाले युगों तक जीवनन्त रहेंगेराजेंद्र नाथ तिवारी
भारतीय साहित्य का आकाश एक ऐसे नक्षत्र से रिक्त हो गया है, जिसकी चमक दशकों तक समाज और संस्कृति को आलोकित करती रही। 24 सितंबर, 2025 को प्रख्यात कन्नड़ उपन्यासकार, दार्शनिक और चिंतक डॉ. एस. एल. भैरप्पा के निधन ने साहित्य जगत में एक ऐसी शून्यता उत्पन्न कर दी है, जिसकी भरपाई असंभव है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित समूचे राष्ट्र ने उनके जाने को भारतीय समाज और संस्कृति के लिए एक अपूर्णीय क्षति बताया है।
भैरप्पा का जीवन अपने आप में एक प्रेरणादायक गाथा रहा। बचपन में ही ब्यूबोनिक प्लेग के कारण माँ और भाइयों को खो देने के बाद उन्होंने जिन विषम परिस्थितियों में शिक्षा प्राप्त की, वह आज की पीढ़ी के लिए उदाहरण है। भिक्षा माँगकर और छोटे-मोटे काम करके शिक्षा अर्जित करने वाला यह बालक आगे चलकर दर्शनशास्त्र का विद्वान और भारतीय साहित्य का शिखर पुरुष बना—यह उनकी अदम्य इच्छाशक्ति और आत्मबल का प्रमाण है।
मैसूर विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में स्वर्ण पदक अर्जित करना और बड़ौदा विश्वविद्यालय से "सत्य और सौंदर्य" विषय पर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करना केवल शैक्षणिक उपलब्धि नहीं, बल्कि उस गहरे वैचारिक अन्वेषण की नींव थी, जिसने बाद में उनके उपन्यासों को असाधारण ऊँचाई प्रदान की।
भैरप्पा का साहित्य भारतीय संस्कृति, इतिहास, परंपरा और आधुनिक प्रश्नों का अद्वितीय समन्वय है। उनके उपन्यास केवल कथा नहीं, बल्कि बौद्धिक विमर्श और आत्ममंथन के दस्तावेज़ हैं। "धर्मश्री", "आवरण", "नीले", "वंशवृक्ष", "सार्थ" और "उत्तरकांड" जैसी कृतियों ने पाठकों को धर्म, समाज और मानवीय संबंधों के गहन प्रश्नों पर सोचने को विवश किया। उन्होंने पश्चिमी विचारधारा के अंधानुकरण पर प्रश्न उठाए और भारतीय दृष्टि से सत्य की पड़ताल की। यही कारण है कि वे केवल कन्नड़ ही नहीं, बल्कि भारतीय भाषाओं के सबसे अधिक पढ़े और चर्चित उपन्यासकार बने।
उनके साहित्य का सबसे बड़ा गुण यह रहा कि उसमें साहस और निष्कपटता झलकती थी। "आवरण" हो या "उत्तरकांड", उन्होंने ज्वलंत और विवादास्पद प्रश्नों को भी खुलकर उठाया। इस निडरता के कारण उन्हें कभी-कभी विरोध भी झेलना पड़ा, लेकिन पाठकों का स्नेह और समर्थन उन्हें निरंतर शक्ति देता रहा।
उनकी कृतियों का प्रभाव इतना व्यापक रहा कि उनका अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में हुआ। करोड़ों पाठकों ने उनमें अपनी सांस्कृतिक पहचान और वैचारिक गहराई का दर्पण देखा।
उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री (2016) और पद्म भूषण (2023) से सम्मानित किया। 2010 का सरस्वती सम्मान और साहित्य अकादमी फेलोशिप उनके साहित्यिक गौरव के प्रमाण हैं। लेकिन पुरस्कारों से परे, उनका सबसे बड़ा सम्मान पाठकों के दिलों में बसी उनकी अमर कृतियाँ हैं।
आज उनके निधन पर साहित्यिक जगत स्तब्ध है। यह केवल एक लेखक का जाना नहीं, बल्कि एक युग का अंत है। उन्होंने हमें यह सिखाया कि साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज का दर्पण और मार्गदर्शक होता है। उनकी लेखनी से निकले विचार आने वाली पीढ़ियों के लिए धरोहर बने रहेंगे।
निस्संदेह, एस. एल. भैरप्पा का जाना भारतीय साहित्य और दर्शन के लिए अपूर्णीय क्षति है। किंतु उनकी रचनाएँ हमें निरंतर यह याद दिलाती रहेंगी कि शब्दों की शक्ति समय और मृत्यु से परे होती है। वे भौतिक रूप से भले ही हमारे बीच न हों, परंतु उनकी सृजनशीलता और विचारधारा आने वाले युगों तक जीवित रहेंगे।
भारतीय साहित्य का आकाश एक ऐसे नक्षत्र से रिक्त हो गया है, जिसकी चमक दशकों तक समाज और संस्कृति को आलोकित करती रही। 24 सितंबर, 2025 को प्रख्यात कन्नड़ उपन्यासकार, दार्शनिक और चिंतक डॉ. एस. एल. भैरप्पा के निधन ने साहित्य जगत में एक ऐसी शून्यता उत्पन्न कर दी है, जिसकी भरपाई असंभव है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित समूचे राष्ट्र ने उनके जाने को भारतीय समाज और संस्कृति के लिए एक अपूर्णीय क्षति बताया है।
भैरप्पा का जीवन अपने आप में एक प्रेरणादायक गाथा रहा। बचपन में ही ब्यूबोनिक प्लेग के कारण माँ और भाइयों को खो देने के बाद उन्होंने जिन विषम परिस्थितियों में शिक्षा प्राप्त की, वह आज की पीढ़ी के लिए उदाहरण है। भिक्षा माँगकर और छोटे-मोटे काम करके शिक्षा अर्जित करने वाला यह बालक आगे चलकर दर्शनशास्त्र का विद्वान और भारतीय साहित्य का शिखर पुरुष बना—यह उनकी अदम्य इच्छाशक्ति और आत्मबल का प्रमाण है।
मैसूर विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में स्वर्ण पदक अर्जित करना और बड़ौदा विश्वविद्यालय से "सत्य और सौंदर्य" विषय पर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करना केवल शैक्षणिक उपलब्धि नहीं, बल्कि उस गहरे वैचारिक अन्वेषण की नींव थी, जिसने बाद में उनके उपन्यासों को असाधारण ऊँचाई प्रदान की।
भैरप्पा का साहित्य भारतीय संस्कृति, इतिहास, परंपरा और आधुनिक प्रश्नों का अद्वितीय समन्वय है। उनके उपन्यास केवल कथा नहीं, बल्कि बौद्धिक विमर्श और आत्ममंथन के दस्तावेज़ हैं। "धर्मश्री", "आवरण", "नीले", "वंशवृक्ष", "सार्थ" और "उत्तरकांड" जैसी कृतियों ने पाठकों को धर्म, समाज और मानवीय संबंधों के गहन प्रश्नों पर सोचने को विवश किया। उन्होंने पश्चिमी विचारधारा के अंधानुकरण पर प्रश्न उठाए और भारतीय दृष्टि से सत्य की पड़ताल की। यही कारण है कि वे केवल कन्नड़ ही नहीं, बल्कि भारतीय भाषाओं के सबसे अधिक पढ़े और चर्चित उपन्यासकार बने।
उनके साहित्य का सबसे बड़ा गुण यह रहा कि उसमें साहस और निष्कपटता झलकती थी। "आवरण" हो या "उत्तरकांड", उन्होंने ज्वलंत और विवादास्पद प्रश्नों को भी खुलकर उठाया। इस निडरता के कारण उन्हें कभी-कभी विरोध भी झेलना पड़ा, लेकिन पाठकों का स्नेह और समर्थन उन्हें निरंतर शक्ति देता रहा।
उनकी कृतियों का प्रभाव इतना व्यापक रहा कि उनका अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में हुआ। करोड़ों पाठकों ने उनमें अपनी सांस्कृतिक पहचान और वैचारिक गहराई का दर्पण देखा।
उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री (2016) और पद्म भूषण (2023) से सम्मानित किया। 2010 का सरस्वती सम्मान और साहित्य अकादमी फेलोशिप उनके साहित्यिक गौरव के प्रमाण हैं। लेकिन पुरस्कारों से परे, उनका सबसे बड़ा सम्मान पाठकों के दिलों में बसी उनकी अमर कृतियाँ हैं।
आज उनके निधन पर साहित्यिक जगत स्तब्ध है। यह केवल एक लेखक का जाना नहीं, बल्कि एक युग का अंत है। उन्होंने हमें यह सिखाया कि साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज का दर्पण और मार्गदर्शक होता है। उनकी लेखनी से निकले विचार आने वाली पीढ़ियों के लिए धरोहर बने रहेंगे।
निस्संदेह, एस. एल. भैरप्पा का जाना भारतीय साहित्य और दर्शन के लिए अपूर्णीय क्षति है। किंतु उनकी रचनाएँ हमें निरंतर यह याद दिलाती रहेंगी कि शब्दों की शक्ति समय और मृत्यु से परे होती है। वे भौतिक रूप से भले ही हमारे बीच न हों, परंतु उनकी सृजनशीलता और विचारधारा आने वाले युगों तक जीवित रहेंगे।
rntiwaribasti@gmail.com

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