सोमवार, 29 सितंबर 2025

ज़ब साधू ही बने अपराधी??

 सम्पादकीय

धार्मिक आस्था और अध्यात्म का स्वरूप भारतीय समाज में हमेशा से संवेदनशील और पवित्र माना गया है। लेकिन जब कोई तथाकथित साधु या स्वामी इस आस्था का दुरुपयोग कर अपने स्वार्थों की पूर्ति करता है, तब वह न केवल धर्म के मूल आदर्शों को ठेस पहुँचाता है, बल्कि समाज में विश्वास की बुनियाद को भी कमजोर कर देता है। दिल्ली के वसंतकुंज स्थित आश्रम से जुड़े चैतन्यानंद सरस्वती उर्फ पार्थसारथी का प्रकरण इसी वास्तविकता की कठोर मिसाल है।यह मामला दो स्तरों पर गंभीर है। पहला, नारी गरिमा के खिलाफ अपराध—आश्रम में रह रही छात्राओं से छेड़छाड़ जैसे कृत्य समाज की संवेदनशीलता को झकझोरते हैं और हमारे संस्थानों की सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं।


 दूसरा, आर्थिक अनियमितताओं और संपत्ति हड़पने का प्रयास—धार्मिक संस्थाओं की संपत्ति पर अवैध कब्जे और जालसाजी से अर्जित लाभ केवल निजी स्वार्थ को जाहिर करता है।ध्यान देने योग्य यह तथ्य है कि समय-समय पर ऐसे आडंबरपूर्ण संत समाज में प्रकट होते रहे हैं और वे भोले-भाले श्रद्धालुओं की भावनाओं को शोषण का साधन बना देते हैं। उनका असली चेहरा तब खुलता है जब आर्थिक अपराध और यौन शोषण जैसी प्रवृत्तियाँ सामने आती हैं। इस मामले से यह स्पष्ट है कि धार्मिक संस्थाओं को कानूनी पारदर्शिता और जवाबदेही के दायरे में लाना अब समय की आवश्यकता बन चुका है।पुलिस और न्यायपालिका की भूमिका यहाँ निर्णायक होगी।

 पीड़ितों को न्याय दिलाना और अपराधी को कठोरतम सज़ा दिलाना समाज में सही संदेश देगा कि कानून की पकड़ से कोई ऊपर नहीं है। साथ ही इस केस से सार्थक सीख यह लेनी होगी कि धार्मिक संस्थानों की आड़ में पनप रही गड़बड़ियों पर सरकारी निगरानी और प्रशासनिक सतर्कता मजबूत बनाई जाए।धर्म लोगों के जीवन में संस्कार, करुणा और सद्भाव का मार्ग प्रशस्त करता है, लेकिन जब धर्म ही शोषण और धोखाधड़ी का औजार बन जाए, तो उसे बचाने की जिम्मेदारी समाज और शासन दोनों की होती है। यही इस मामले का सबसे बड़ा सबक है. 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें