सोमवार, 29 सितंबर 2025

भारत मे राजनीति को ब्यवसाय या उड़द्योग बनाने पर बहस हो, राजेंद्र नाथ तिवारी

 भारत में राजनीतिक दलों और नेताओं की वित्तीय और व्यावसायिक हिस्सेदारी बढ़ने के कारण यह बहस तेज हुई है कि क्या राजनीति अब सेवा का माध्यम नहीं रह गई बल्कि एक बड़ा व्यापार और उद्योग बन गई है।


इस विषय पर आलोचना के कई बिंदु सामने आए हैं। चुनावों में खर्च का भारी खेल, दलबदल की राजनीति, सत्ता के लिए अनैतिक गठजोड़ और निजी लाभ के लिए नीतियों का दुरुपयोग जैसे पहलू इसे उद्योग जैसा बनाते हैं। राजनीतिक संपन्नता अक्सर व्यवसायी हितों से जुड़ी होती है, जहां पूंजी निवेश और राजनैतिक लाभ के बीच जटिल संबंध बन गए हैं।भारत में राजनीतिक निर्णयों और नीतियों पर बड़े उद्योगों का प्रभाव भी लगातार बढ़ता जा रहा है, जिससे जनहित की अपेक्षा व्यापारिक हितों की प्राथमिकता देखने को मिलती है। इस तरह की सत्ता और पूंजी के गठजोड़ से लोकतंत्र की मूल भावना प्रभावित होती है और जनता का विश्वास कमजोर होता है।वहीं, उद्योग जगत का तर्क है कि वे विकास और समाज सुधार में भूमिका निभा रहे हैं, और राजनीति का यह व्यवसायिक स्वरूप आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक भी माना जा सकता है। 

परंतु सार्वजनिक विमर्श में इस व्यापारिक राजनीति की सीमाओं, प्रभावों और खतरों पर गंभीर बहस की जरूरत है।इस पूरे विषय पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस कराने का सुझाव दिया जा रहा है ताकि राजनीति को पुनः सेवा का क्षेत्र बनाने के लिए उपयुक्त कदम उठाए जा सकें और लोकतंत्र मजबूत हो सके।यह बहस इस बात को समझने की कोशिश करती है कि क्या राजनीति अब भी जनसेवा है या केवल सत्ता और धन के खेल के रूप में संकुचित हो गई है। इससे लोकतंत्र की मूल भावना की रक्षा के लिए आवश्यक सुधारों की दिशा मिल सकती है।यह मुद्दा समकालीन भारत का एक महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक प्रश्न है, जिस पर आक्रामक और संवेदनशील विचार-विमर्श हो रहा है।

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